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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशालन प्रधान जगत को यह बात असत्य,अटपटी और एकान्त आदि न जाने क्याक्या लगेगी; परन्तु आगम, युक्ति और अनुभव की कसौटी पर कसकर विचार किया जाए तो ज्ञात होगा कि वस्तुस्वरूप ऐसा ही है।
एक शिकारी वन में भागते हुए हिरण पर गोली चलाता है, किन्तु निशाना चूक जाने से वह हिरण बच जाता है । अब आप ही बताइये कि शिकारी को हिंसा का पाप लगना चाहिए या नहीं ? कोई भी समझदार व्यक्ति यही कहेगा कि उसे हिंसा का पाप अवश्य लगना चाहिए ? तब मैं पूछता हूँ कि क्यों लगना चाहिए ? हिरण तो मरा नहीं। तब वह यही कहेगा कि हिरण का मरना या बचना तो उसकी आयुकर्म के क्षय या उदय के आधीन है, परन्तु उस शिकारी ने मारने का भाव तो किया ही है। अतः बन्ध तो परिणाम से हुआ क्रिया से नहीं।
प्रश्न :- उसने मारने का प्रयत्न भी तो किया है ? तो उसे हिंसा का बन्ध होने के कारणों में प्रयत्न को भी क्यों न कहा जाए ?
उत्तर :-प्रयत्नरूपी क्रिया पर परिणामों का आरोप करके असद्भूत व्यवहारनय से प्रयत्न को भी बन्ध का कारण कह सकते हैं। आगम में भी कहा जाता है ; परन्तु यहाँ तो यह विचार करना है कि वास्तविक स्थिति क्या है ? बन्ध का असली कारण क्या है ? यदि क्रिया मात्र से बन्ध होता हो तो एक-सी क्रिया करने वाले जीवों को एक-सी कर्म प्रकृति और एकसे स्थिति-अनुभाग बन्ध होना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं होता।
शास्त्रों में कथानक आता है कि वन में आत्मध्यान में लीन एक दिगम्बर मुनिराज का भक्षण करने के लिए एक सिंह उन पर झपटता है । उसी समय एक शूकर उसे देख लेता है और वह मुनिराज को बचाने के लिए सिंह पर आक्रमण कर देता है । आपस में लड़ते हुए उन दोनों का प्राणान्त हो जाता है और सिंह नरक में जाता है, परन्तु शूकर स्वर्ग में जाता है।
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