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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का जीवन में स्थान
एकाग्रता ) उसी तरफ लगाता था कि "अब क्लच दबाना है, अब गेयर बदलना है - इत्यादि, परन्तु पूरी तरह सीख लेने पर ये क्रियायें सहज होती रहती हैं और उसके परिणाम कैसेट सुनने में या हमसे बातें करने में लगे रहते हैं ।
इसी प्रकार एक कुशल टाइपिस्ट भी हमसे बातें करता रहता है, लेख को पढ़ता रहता है तथा उसकी उंगलियाँ सही-सही टाइप भी करती हैं।
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उपर्युक्त ड्रायवर और टाइपिस्ट के समान हमारे जीवन में भी ऐसे प्रसंग बहुत बनते हैं। भोजन करने या टी.वी. देखने की क्रिया चलती रहती है और उसी समय हम किसी से बात करते रहते हैं या कुछ और सोचते रहते हैं ।
खाने-पीने आदि लौकिक क्रियाओं की तो बात क्या करना ? हमारी धार्मिक क्रियाओं में तो प्रायः ऐसा ही होता है। पूजन प्रारम्भ करते समय कुछ क्षण तो पूजन के छन्द भावपूर्वक पढ़े जाते हैं, किन्तु शीघ्र ही हमारा मन (परिणाम) धन्धे व्यापार आदि लौकिक विषयों में चला जाता है। हम दिन भर के कार्यक्रम की योजना उसी समय बना लेते हैं कि आज अमुक को ड्राफ्ट भेजना है, उसको माल भेजना है, उस मीटिंग में जाना है.... इत्यादि । हम न केवल योजना बनाते हैं, अपितु उस विषय में इतने तन्मय हो जाते हैं कि विकल्पों में ही सारे कार्य सम्पन्न कर लेते हैं और मुख से पूजन के छन्द बोलते रहते हैं और हाथों से पूजन-सामग्री चढ़ती रहती है। जब पूजा पूरी हो जाती है तब मानों हमें होश आता है कि 'अरे पूजा तो पूरी हो गई।
अँग्रेजी में एक कहावत है - 'Present body absent mind' अर्थात् ‘शरीर उपस्थित और मन अनुपस्थित' यह उक्ति भी क्रिया और परिणाम की भिन्न दिशाओं वाली स्थिति को सिद्ध करती है। उनमें अत्यन्त अभाव होने से उनका स्वरूप तो परस्पर भिन्न ही रहता है, भले ही वे एक
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