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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का स्वरूप प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार प्रमेयकमलमार्तण्ड में नय की परिभाषा बताते हुए उसे 'ज्ञाता का अभिप्राय' कहा गया है। उनका मूल कथन निम्नानुसार है :
'अनिराकृत प्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः
इस परिभाषा से स्पष्ट है कि नय अभिप्राय' शब्द का पर्यायवाची भी है। नय श्रुतज्ञानात्मक है, अतः ‘अभिप्राय' शब्द भी नयात्मक श्रुतज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है। उक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि जब नयों अथवा अपेक्षा के सन्दर्भ में 'अभिप्राय' शब्द का प्रयोग किया जाए तो अभिप्राय को श्रुतज्ञान की नयात्मक पर्याय समझना चाहिए और जब क्रिया
और परिणाम के साथ अभिप्राय' शब्द का प्रयोग किया जाए तो उसे श्रद्धा गुण की पर्याय समझना चाहिए। इसमें मिथ्याज्ञान भी शामिल है।
क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का क्रम ___ मुक्तिमार्ग प्रगट करने के लिए सर्वप्रथम वस्तुस्वरूप का निर्णय करके अभिप्राय की भूल मिटाकर यथार्थ अभिप्राय प्रगट किया जाता है। सम्यक् अभिप्राय होने पर परिणामों में वीतरागभाव की वृद्धि होने लगती है और शेष रहे हुए शुभ राग के निमित्त से यथायोग्य धार्मिक क्रियायें भी होती हैं। अतः यथार्थता की अपेक्षा अभिप्राय, परिणाम और क्रिया- ऐसा क्रम होना चाहिए। परन्तु स्थूलता से सूक्ष्मता के क्रम की अपेक्षा क्रिया, परिणाम और अभिप्राय- यह क्रम रखा गया है।
प्रश्न :- ‘अभिप्राय' शब्द के अपेक्षा, दृष्टिकोण, मान्यता, उद्देश्य, विश्वास आदि अनेक अर्थ होते हुए भी आप उसे मान्यता के अर्थ में ही ग्रहण क्यों करते हैं ?
उत्तर :- उक्त अनेक अर्थ लिखकर हम उन्हें भी स्वीकार तो कर ही रहे हैं, परन्तु इस विवेचन का उद्देश्य ही विपरीत श्रद्धान अर्थात् मान्यता का स्पष्टीकरण करना है। इस विवेचन के मूल आधार मोक्षमार्ग प्रकाशक
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