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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन
प्रस्तुत कृति की आधारभूत मूल पक्तियाँ
सम्यक् चारित्र का अन्यथारूप
बाह्य क्रिया पर तो इनकी दृष्टि है और परिणाम सुधरने-बिगड़ने का विचार नही है और यदि परिणामों का भी विचार हो तो जैसे अपने परिणाम होते दिखाई दें उन्हीं पर दृष्टि रहती है ।
परन्तु उन परिणामों की परम्परा का विचार करने पर अभिप्राय में जो वासना है, उसका विचार नहीं करते ।
और फल लगता है सो अभिप्राय में जो वासना है उसका लगता है ।
इसका विशेष व्याख्यान आगे करेंगे। वहाँ स्वरूप भलीभाँति होगा ।
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आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी :
मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ-238
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