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चक्षुष्मान् !
प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा-दोनों साधन हैं, साध्य नहीं हैं । साध्य है राग-द्वेष मुक्त चेतना का जागरण ।
___ यह मत सोचो कि चेतना एक क्षण में राग-द्वेष मुक्त हो "जाएगी। यह सोचो-राग-द्वेष मुक्त चेतना का एक क्षण भी दिशा बदल देगा।
__ राग-द्वेष युक्त चेतना की निरन्तरता का विच्छेद करना क्या कोई छोटी घटना है ? बहुत बड़ी बात है इसे अनुभव करना । उस क्षण में ही आत्म-दर्शन होता है, अपने आपको देखने की सार्थकता घटित होती है।
__ आत्म-दर्शन और आत्म-निरीक्षण-ये दोनों अहिंसा के वैयक्तिक स्तर हैं। तुम अपने आपको देखकर ही अहिंसा की अनुभूति में उतर सकते हो । अहिंसा कोई बाहर से आने वाली वस्तु नहीं है । वह आंतरिक चेतना का विशिष्ट जागरण है।
आत्म-निरीक्षण के द्वारा व्यक्ति अपने कृत कार्यों की समीक्षा करता है, मीमांसा करता है, अपने आपको जानने-पहचानने का प्रयत्न करता है । यह अपना संबोध ही चेतना के नव उन्मेष का हेतु बन जाता
आत्म-दर्शन और प्रेक्षा--दोनों को एक तराजू से तोलो। अनुप्रेक्षा और आत्म-निरीक्षण के मध्य भेदरेखा मत खींचो। कार्य-कारण की अभेददृष्टि ही तुम्हें साधन से साध्य तक पहुंचा
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