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अध्यात्म की वर्णमाला
श्वास प्रेक्षा में केवल श्वास को लम्बा ही मत करो, उसे देखने का अभ्यास करो। कोरा दीर्घश्वास श्वास का व्यायाम हो सकता है, ध्यान नहीं। ध्यान तव होता है, जब मन श्वास के साथ जुड़ता है।
ध्यान नथुनों के भीतर टिकाओ। श्वास को लम्बा करो। वह भीतर जाए, तब भीतर जा रहा है, इसका अनुभव करो। जब बाहर आये, तब बाहर आ रहा है, इसका अनुभव करो। बीच-बीच में विचार आएंगे, श्वास का आलम्बन छूट जाएगा और मन विचारों में उलझ जाएगा। उस समय जागरूकता साथ देगी। जो विचार आए, उन्हें द्रष्टाभाव से देखो। रोकने का आयास मत करो। पूरी जागरूकता के साथ मन को फिर श्वास के साथ जोड़ो।
इस प्रयोग में जागरूकता का बहुत मूल्य है। जागरूकता का सम्बन्ध रुचि से है, संकल्प से है। यदि तुम्हारी रुचि श्वास दर्शन में प्रगाढ़ है तो जागरूकता अपने आप रहेगी। विचार का व्यवधान होते ही वह अपना काम शुरू कर देगी और मन फिर श्वास के साथ जुड़ जाएगा। संकल्प के द्वारा भी ऐसा ही घटित होता है। यह श्वासप्रेक्षा का पहला प्रयोग है। इसका विकास अनेक चरणों में किया जा सकता है।
दवेर १ फरवरी, १९९१
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