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अध्यात्म की वर्णमाला
है-धम्मो मंगलमुक्किनें-धर्म उत्कृष्ट मंगल है । यह सूत्रकार का वचन है । इसको हमने जान लिया । अब ज्ञान की परम्परा को आगे बढ़ाओ । धर्म मंगल कैसे ? मंगल वह होता है, जिससे अनिष्ट टले, इष्ट की प्राप्ति हो । मनुष्य के लिए इष्ट है सुख । वह सुख चाहता है, दु:ख नहीं चाहता, यह सामान्य अवधारणा है । खाने से सुख मिलता है। क्या खाना भी धर्म है ? खाने के साथ दुःख भी जुड़ा हुआ है। धर्म वह होता है, जिससे सहज सुख मिले । खाने का सुख काल्पनिक, आरोपित या माना हुआ है।
तुम मनन करो-पदार्थ का भोग आसक्ति उत्पन्न करता है। जितनी आसक्ति उतना भावात्मक तनाव । जितना भावात्मक तनाव उतना मानसिक तनाव या मानसिक दुःख । धर्म है चेतना की अनुभूति । जितनी चेतना की अनुभूति उतनी अनासक्ति। जितनी अनासक्ति उतनी भावात्मक प्रसन्नता। जितनी भावात्मक प्रसन्नता उतनी मानसिक निर्मलता। जितनी मानसिक निर्मलता उतना सहज सुख । धर्म से इष्ट सधता है । वह सहज होगा, वस्तु-सापेक्ष नहीं होगा।
तुम गोता लगाना सीखो। गोता लगाए बिना कोई भी समुद्र के तल में रहे हुए मुक्ताओं और रत्नों को नहीं पा सकता । मनन का अर्थ है-स्वाध्याय के महासागर में डुबकियां लगाना, अतल गहराइयों में पहुंचकर वह पाना, जो समुद्र के तट पर बैठे को नहीं मिलता। भले तुम दिन में दो-चार पृष्ठ पढ़ो अथवा पांच-दस श्लोक पढ़ो। कोई समस्या नहीं, यदि तुम उन पर चिन्तन-मनन करते रहो।
आगम की स्वाध्याय पद्धति का प्रसिद्ध सूत्र है--'नथिजिणवयणं नय विहूणं' अर्हत् का एक भी वचन नयविहीन नहीं है इसलिए प्रत्येक वचन पर ध्यान दो-यह किस अपेक्षा से कहा गया है ? अपेक्षा को समझने का प्रयत्न नहीं करोगे तो तुम्हारा मन आग्रह से भर जाएगा। फिर पकड़ बन जाएगी, लचीलापन नहीं रहेगा।
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