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समणश्रेणी की पृष्ठभूमि
तेरापंथ क्रांति का दूसरा नाम है। रक्तक्रांति, श्वेतक्रांति या हरितक्रांति नहीं, बल्कि अध्यात्म-क्रांति का अपर नाम है-तेरापंथ। 'आत्मा रा कारज सारस्यां, मर पूरा देस्यां' इस फौलादी संकल्प से जन्मा एक सच है-तेरापंथ। तेरापंथ एक आचार्य की अनुशासना, से शासित है और एक ही विधान से मर्यादित है। तेरापंथ की प्रगति का श्रेय इसकी गौरवशाली आचार्य परम्परा को है। सक्षम, सबल, तेजस्वी और मेधावी आचार्यों ने तेरापंथ की मान-मर्यादा की सुरक्षा के साथ-साथ अपने नवीन अवदानों से इसकी श्री को वृद्धिगंत किया है।
तेरापंथ आचार्य परम्परा में आठवें आचार्य हैं-आचार्य श्री कालूगणी। श्रीमत् कालूगणी ने अपना उत्तराधिकार सौंपते वक्त युवाचार्य तुलसी को साध्वी समाज के शैक्षिक एवं बौद्धिक विकास का जो संकेत दिया था, आचार्य-पद पर आसीन होते ही उन्होंने उस कार्य को प्राथमिकता दी। प्रतिभा को परखा तथा स्वतंत्र चिन्तन के विकास को अवकाश दिया और साध्वी समाज के उन्नयन की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी।
विकास का क्रम बना। दीक्षा से पहले शिक्षा के लिए पारमार्थिक शिक्षण संस्था का उदय हुआ। गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के चिन्तन की धारा में नए-नए सपने तैरते हैं। मेवाड़ की ऐतिहासिक धरती उदयपुर १६६२ के आपने फिर एक स्वप्न देखा। उस वर्ष पट्टोत्सव के पावन प्रसंग पर गुरुदेव ने अपने संकल्पों को मूर्त रूप देने हेतु कुछ विन्दुओं की चर्चा की, जिनमें एक था-'संघ में ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का रूप विकसित हो और साधु-श्रावक के बीच एक ऐसा वर्ग तैयार हो जो महावीर के सार्वभौम सिद्धान्तों को तीव्रगति से जन-जन तक पहुंचा सके।'
चिन्तन का यह बिन्दु समणश्रेणी के उद्भव का प्रथम संकेत था। उस
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