SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 600
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री वीरचन्द राघवजी गांधी ५५१ के विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं है । अपने धर्म की प्रशंसा तथा सत्यता का प्रमाण दूसरों की निन्दा करने में नहीं है। ऐसे व्यक्तियों पर मुझे दया आती है। दक्षिण भारत में कुछ ऐसे मंदिर है, जिनमें विशेष अवसरों पर गाने के लिए गानेवाली स्त्रियां रखी जाती हैं। उनमें कुछ का चरित्र संदिग्ध भी हो सकता है । हिन्दू इसे अनुभव भी करते हैं और इस बुराई को दूर करने का प्रयत्न भी कर रहे हैं। ऐसी स्त्रियों को मन्दिर के मुख्य भाग में प्रविष्ट नहीं होने दिया जाता। उनके पुजारिन होने के सम्बन्ध में यह कहना पर्याप्त है कि हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक एक भी स्त्री पुजारिन नहीं है........। यदि भारत में वर्तमान बुराइयाँ हिन्दूधर्म के कारण उत्पन्न हुई भी हैं तो इसी धर्म में ऐसा राष्ट्र बनाने की शक्ति है; जिसके विषय में युनानी इतिहासकारों ने कहा है कि कोई हिन्दू झूठ बोलता नहीं देखा गया और कोई हिन्दू नारी शीलपतित नहीं सुनी गई। आधुनिक काल में भी भारत से बढ़कर चरित्रवती नारियाँ और सहृदय पुरुष संसार में कहाँ हैं ? 1" परिषद् के अन्तिम दिन श्री गांधी की गम्भीर ध्वनि और विचारों की शालीनता गूंज उठी, जब उन्होंने कहा "क्या हम सब इस बात का अनुभव नहीं कर रहे कि हम अति शीघ्र विदा हो रहे हैं। क्या हम यह अभिलाषा नहीं रखते कि यह परिषद् सत्तरह दिन तक सत्तरह बार होती रहे । क्या हमने इक मंच पर विद्वान प्रतिनिधियों के भाषण आनन्द और रुचिपूर्वक नहीं सुने हैं ? क्या हम यह नहीं जानते कि इस अनुपम परिषद् के प्रायोजकों का स्वर्ण स्वप्न पाशा से भी अधिक सफल सिद्ध हुअा है ? यदि आप किसी गैर ईसाई को शांति और प्रेम का संदेश देने की आज्ञा दें तो मैं आपसे अनुरोध करूंगा कि आप उन विविध विचारों का उदार दृष्टि से मनन करें जो आपके सम्मुख उपस्थित किये गए हैं । हाथी और सात अंधों की कहानी के समान अन्धविश्वास तथा पक्षपात की दृष्टि से विचार करना अनुचित होगा। ___परिषद् के मंच के अतिरिक्त गांधीजी ने अमेरिका में जो अनेक भाषण दिये थे वे भी अत्यन्त महत्वपूर्ण और मनन योग्य हैं। उनसे उनकी निर्भीकता, स्पष्टवादिता, सत्यप्रियता तथा प्राज के जगभग ६० वर्ष पहले भी विश्वबन्धुता की भावना की झलक स्पष्ट रूपेण पाठकों को दिखाई दे सकेगी। उनके भाषणों के एक-दो उदाहरण और दिये जाते हैं "मेरे भाइयो और बहिनो। आप जानते हैं कि हम स्वतंत्र राष्ट्र के निवासी नहीं हैं । हम महारानी विक्टोरिया की प्रजा हैं । किन्तु यदि हम राष्ट्र शब्द के सच्चे अर्थ के अनुसार अपने राष्ट्र होने का गर्व कर सकते, हमारी अपनी सरकार होती और अपने ही शासक होते, हमारे कानन और हमारी संस्थानों का संचालन स्वतंत्रता पूर्वक हमारी स्वेच्छा के अनुसार होता तो मैं निश्चयपर्वक कहता हूं कि हम संसार में सभी राष्ट्रों के साथ शांतिपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने और उन्हें हमेशा केलिये स्थिर रखने का सतत् प्रयत्न करते। हम न तो मापके सम्मान को कम करने का प्रयत्न करेंगे और न ही आपके अधिकारों अथवा भूमि पर छापा मारने की कोशिश करेंगे । हम राष्ट्रों के कुटुम्ब में सबको वही पद देंगे जो कि आप हमें इस समय मनुष्य जाति के कुटुम्ब में प्रदान करते हैं । एक संस्कृत के कवि ने कहा है कि, "यह मेरा देश है, यह तुम्हारा है. ये विचार संकुचित हृदय 1. Barrows : World's Parliament of Religions Vol. I P. 144-45. 2. Barrows World's Parliament of Religions Vol. I P. 171. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy