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________________ ५३८ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म वल्लभस्मारक योजना वल्लभस्मारक योजना में बनने वाला भव्य कलात्मक भवन, जैन शिल्पकला का उत्तरी भारत में एक अद्वितीय दर्शनीय स्थल होगा, जिसमें भारतीय एवं जैनदर्शन पर शोध-कार्य, संस्कृत एवं प्राकृत विद्यापीठ, जैनआर्ट गैलरी, तथा योग और ध्यान का साधना केन्द्र होने के अतिरिक्त जैनसमाज की विभिन्न शैक्षणिक तथा अन्य योजनाओं का अखिलभारतीय स्तर का केन्द्र होगा। श्रमणमंडल के अध्ययन एवं स्वाध्याय केलिए भी प्रत्येक सुविधा उपलब्ध होगी। वल्लभस्मारक युवापीढ़ी की प्राकांक्षाओं का सच्चा प्रतीक होगा। गुरुदेव की सुन्दर प्रतिमा एवं जिनालय के साथ-साथ आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण एक प्रयटक केन्द्र का निर्माण भी योजना में सम्मिलित है । इस पूर्ण योजना पर लगभग एक करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। साध्वी प्रानन्दश्री जी पंजाब के मुलतान नगर में लाला लूणकरणजी प्रोसवाल सिंध्वी की धर्मपरायणा पत्नी श्रीमती प्रेमीबाई की कुक्षी से वि. सं. १९७१ में उत्तमबाई का जन्म हुआ, बाद में इनका नाम अतरादेवी हुमा, ये चार बहने और दो भाई थे। वि. सं. १९८२ में ११ वर्ष की आयु में अतरादेवी का विवाह गुजरांवाला निवासी लाला नानकचन्दजी के सुपुत्र लाला हीरालालजी बीसा प्रोसवाल बरड़ गोत्रीय से हो गया । गृहस्थावस्था में भी अतरादेवी का जीवन धर्मसंस्कारों से अोतप्रोत था। तीस वर्ष की युवावस्था में अतरादेवी विधवा हो गई । पति की मृत्यु से उनके मन को प्राघात लगा। छोटे-छोटे पांच बाल-बच्चों के भरण-पोषण का भार तथा सारी जिम्मेदारी को एकाकी वहन करना पड़ा। संसार को असारता तथा संसारिक सुख तृणवत तुच्छ लगने लगे। उन्हें अपनी अल्प आयु का भी प्राभास हो गया था। प्रात्मकल्याण की भावना तथा वैराग्य में दिन प्रतिदिन वृद्धि होने लगी। दोनों पुत्रों ने युवा होने पर अपने कारोबार को संभाला। स्वयं अपनी १० वर्षीय छोटी पुत्री चांदरानी को साथ में लेकर शुत्रुजय गिरिराज की छत्रछाया में पालीताना (सौराष्ट्र) में पहुंची। प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरिजी की प्रेरणा से वि. सं. २००१ मार्गशीर्ष सुदि ६ के दिन प्रादीश्वर दादा की छत्रछाया में मां बेटी दोनों ने भागवती दीक्षा ग्रहण की। माता साध्वी श्री हितश्री जी की शिष्या बनी। इनका नाम आनन्दश्री रखा गया । पुत्री ने दीक्षा लेकर अपनी माता गुरुणी प्रानन्दश्री का शिष्यत्व स्वीकार किया और नाम जसवन्तश्री रखा गया। साध्वी प्रानंदश्री यथाशक्ति ज्ञान, ध्यान, विनय, वैयावच्च, तपस्या आदि करते हुए निरातिचार चारित्र का पालन करते हुए अपने प्रात्मकल्याण में अग्रसर होने लगीं। ६ वर्ष उत्कृष्ट संयम की माराधना करते हए वि० सं० २०१० मिति जेठ सदि६ के दिन लगभग ३६ वर्ष की आयु में पाटण (गुजरात) में आपका स्वर्गवास हो गया । नवकार मंत्र का जाप करते हुए आपने इस नश्वर देह का त्याग किया। प्राध्यत्मिक साधना इतनी उत्कृष्ट थी कि आप अपने मुख से भविष्य में होने वाली घटना को प्रात्मज्ञान के प्रकाश से जो कुछ कह देते थे वह सौ फ़ीसदी सत्य होती थी। १ साध्वी श्री जसवंतश्री प्रादि ठाणा ६ गुजरांवाला श्री नानकचन्दजी प्रोसवाल बड़ी गोत्रीय के सुपुत्र लाला हीरालालजी की सुपत्नी अतरादेवी की कुक्षी से वि० सं० १९६२ में कन्या का जन्म हुआ। माता-पिता ने कन्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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