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________________ ४४६ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म हुए है जिन्होंने दिगम्बर ग्रन्थों पर आदर सहित महत्वपूर्ण टीकाएं लिखी हैं । इतना ही नहीं पुस्तक संग्रह की दष्टि से भी दिगम्बर परम्परा का मानस श्वेतांबर परम्परा के मानस से पहले से ही (8) श्री वासुदेव शरण अग्रवाल M.A. Curator Curzon Museum Mathura अपने लेख-प्राचीन मथुरा में जैनधर्म का वैभव में लिखते है कि - मथुरा में ईस्वी सन में लगभग चार-पांच शताब्दि पूर्व, जैनधर्म के स्तूपों की स्थापना हुई । प्राज कंकाली टीले के नाम से जो भूमि वर्तमान मथुरा संग्राहलय से पश्चिम की ओर करीब आध मील दूरी पर स्थित है, वह पवित्र स्थान ढाई सहस्र वर्ष पहले जैनधर्म के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था । उत्तर भारत में यहाँ के तपस्वी आचार्य सूर्य की तरह तप रहे थे। यहां की स्थापत्य और भास्कर कला के उत्कृष्ट शिल्पों को देखकर दिग्दिगन्त के यात्री दाँतों तले उंगली दबाते थे। यहां के श्रावक और श्राविकाओं की धार्मिक श्रद्धा अनुपम थी। अपने पूज्य गुरुत्रों के चरणों में धर्मभीरु लोग सर्वस्व अर्पण करके नाना भाँति की शिल्पकला के द्वारा अपनी अध्यात्म साधना का परितोष करते थे । अन्त में यहां के स्वाध्यायशील भिक्षु और भिक्षुणियों द्वारा संगठित जो अनेक विद्यापीठ थे उनकी कीर्ति भी देश के कोने-कोने में फैल रही थी। उन विद्यास्थानों को गण कहते थे, जिनमें कई कुल और शाखामों का विस्तार था। इन गण और शाखाओं का विस्तृत इतिहास जैन (श्वेतांबर) कल्पसूत्र तथा मथरा के शिलालेखों से प्राप्त होता है। अब हम कुछ विशदता से जैनधर्म के इस प्रतीत गोरव का यहां उल्लेख करेंगे । देवनिर्मित स्तूप कंकाली टीले की भूमि पर एक प्राचीन जैन स्तूप और दो मन्दिर या प्रासादों के चिन्ह मिले थे। अर्हत् नन्द्यावर्त अर्थात् अठारहवें तीर्थंकर प्रर की एक प्रतिमा की चौकी पर खुदे हुए एक लेख में लिखा है [F. I Vol. II, Ins no. 20] कि कोट्टिय गण की वज्री शाखा के वाचक आर्य वृद्धहस्ती की प्रेरणा से एक श्राविका ने देवनिर्मित स्तूप में अर्हत की प्रतिमा स्थापित की। यह लेख सं० ७६ अर्थात् कुषाण सम्राट् वासुदेव के राज्यकाल ई० १६७ का है, परन्तु इसका देवनिर्मित शब्द महत्त्वपूर्ण है; जिस पर विचार करते हुए बूलर स्मिथ आदि विद्वानों ने [Jain stupa, P. 18] निश्चय किया है कि यह स्तूप ईस्वी दूसरी शताब्दि में इतना प्राचीन समझा जाता था कि लोग इसके वास्तविक निर्माणकर्ताओं के इतिहास को भूल चुके थे और परम्परा के द्वारा इसे देवों से बना हुमा मानते थे। इस स्तूप का नाम बौद्ध स्तूप लिखा हुआ है। (यह बात इतिहासज्ञों की अज्ञानता का प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित करता है, और उनकी इस धारणा का प्राधार हुएनसांग आदि बौद्ध चीनी यात्रियों के भारत भ्रमण के समय उनके सभी लिखे गये भ्रांत विवरण हैं । उन लोगों ने भारत में जहां भी कोई स्तूप देखा उसे अशोक का अथवा बौद्धों का लिख डाला। फिर वह चाहे किसी अन्य धर्मा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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