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________________ वीर परम्परा का अखण्ड प्रतिनिधित्व ४३४ में नग्नमूर्ति का मूल्यांकन भी प्राचीन काल से करती चली आ रही है। इससे विपरीत दिगम्बर फिरके की मालिकी के किसी भी मंदिर या तीर्थ को लो तो उनमें नग्नमूर्ति के सिवाय यदि सादा तथा दिगम्बरत्व के अधिक निकट भी होगी तो भी उस मूर्ति का वहिष्कार ही होगा। इस परम्परा के शास्त्र भी एकान्त नग्नत्व के ही समर्थक होने से दिगम्बर मानस प्रथम से आज तक एकान्तिक नग्नमूर्ति और नग्न साधु ही जिनप्रतिमा पौर जैनसाधु हैं ऐसा मानता चला आ रहा है। मति नग्न न हो, साधु नंगा न हो तो उन्हें मानना और पूजना योग्य नहीं ऐसा ही विश्वास करता रहा है। जबकि श्वेतांबर परम्परा का इस विषय का वारसा प्रथम से ही उदार रहा है, ऐसा लगता है। यही कारण है कि यह जिनमूर्ति की उपासना की अनेकांतिक मान्याता दिगम्बर परम्परा के जितनी ही रखते हुए दिगम्बर फिरके के समान एकांतिक नहीं बनी। बुद्धि और तर्क की कसौटी पर कसने से लगता है कि नग्न और मनग्न दोनों प्रकार की जिनप्रतिमाएं उपासना के अनुकूल हैं। न कि कोई एक प्रकार की । इसलिए मूर्ति स्वरूप के विषय की पगपूर्व से चली पाने वाली कल्पना का विचार करने से और उसकी उपासनागत अनेकान्त दृष्टि के साथ मेल बिठाने से ऐसा स्पष्ट लगता है कि एकांत नग्न मूर्ति अथवा नंगे साधु की मान्यता का आग्रह रखने से वीर परम्परा का प्रतिनिधित्व खंडित हो जाता है। क्योंकि इस एकान्त अाग्रह में तीर्थंकर की सर्वांग उपासना का समावेश नहीं होता। किन्तु श्वेतांबर परम्परा की नग्न और अनग्न जिनप्रतिमा तथा निग्रंथ साधु की मान्यता में दिगम्बर एक पक्षीय मान्यता का भी रुचि और अधिकारी भेद से पूर्ण समावेश हो जाता है। (३) तीसरा प्रश्न मुहपत्ती के विषय में है। दिगम्बर फिरका तो इसका उपयोग नहीं करता। इसलिये श्वेतांबर और स्थानकमार्गी साधु इसका उपयोग करते हैं। श्वेतांबर मुंहपत्ती का प्रयोग हाथ में लेकर बोलते समय मुंह के आगे रखकर करते हैं और स्थानकमार्गी मुह पर बाँधते हैं। इसका विचार हम मुनि बुद्धिविजयजी के प्रसंग में कर पाये हैं। श्वेतांबर परम्परा वीरपरम्परा के अनुसार इसका प्रयोग करती है। इसलिये वीरपरम्परा से इसका सीधा संबन्ध है । (लेखक) (१) गर्भापहरण, (२) सुपार्श्वनाथ के सिर पर पांच मुंह वाला सर्पफण, (३) ऋषभदेव के सिर और कंधों तक लटकते केश तथा (४) जैन साधु का वस्त्र परिधान सर्वथा श्वेतांबर परम्परा की मान्यता के अनुकूल है। दिगम्बर परम्परा इन चारों मान्यताओं का ज़बर्दस्त विरोधी है । इससे यह बात प्रत्यक्ष है कि ये नग्न-अनग्न मूर्तियां जिन पर श्वेतांबर प्राचार्यों के लेख भी अंकित हैं और श्वेतांबर मान्यता के अनुकूल तथा दिगम्बर मान्यता के प्रतिकूल हैं; निश्चय ही श्वेतांबर परम्परा की मालिकी की ही हैं । श्वेतांबर साहित्य में सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा पर पांच मुखवाले सर्पफण का कारण यह बतलाया है कि जब सुपार्श्वनाथ माता के गर्भ में थे तब माता ने स्वप्न देखा था कि उनके गर्भस्थ बालक के सिर पर पांच मुखवाला सर्पफण मंडित है और उस नाग की सेज 'पर वे विराजमान हैं । त्रिषष्टि शालाका पुरुष चरित्र में लिखा है कि जब भगवान सुपार्श्वनाथ को केवलज्ञान हो गया था और वे देवनिर्मित समवसरण में विराजमान थे तब इन्द्र ने उनके सिर पर सर्पफण का छत्र लगाया था। इसलिये उनकी प्रतिमा पर पाँचमुख सर्पफण बनाया जाता है तथापि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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