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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
बूटासिंह रखा । इसने २५ बर्ष की आयु में वि० सं० १८८८ में ढढक साधु की दीक्षा ली। नाम बूटाराय रखा गया । १० वर्षों तक निरंतर जैनशास्त्रों का अभ्यास तथा साधु जीवन का पालन करते रहे । शास्त्रज्ञान प्राप्त करने पर इन्हें ऐसा लगा कि ढूढक मत जिसकी मैंने दीक्षा ली है यह जैनशास्त्रों की मान्यता के प्रतिकूल है। वि० सं० १८६८ से १६०५ तक विशेष अभ्यास मनन चिंतन तथा उस समय के इस मत के साधु-संतों एवं विद्वान श्रावकों से इन्होंने इस विषय पर चर्चाएं की जिसके परिणामस्वरूप प्रापका निश्चय दृढ़ हो गया और वि० सं० १६०३ में प्राप ने व प्राप के शिष्य मूलचन्द जी ने मुखपर मुहपत्ति बाँधना छोड़ दिया और उसे हाथ में लेकर मुख के आगे रखकर बातचीत तथा व्याख्यान अादि करने लगे। सच्चे गुरु की खोज का इंतजार करने लगे। इस बीच में आपने जिनमूर्ति, जिन मंदिर मान्यता तथा मुहपत्ति के विषय में ढूढक साधुनों के साथ चर्चाएं की और कोई समाधान न पाकर सर्वत्र जिन पूजा के प्रचार में जूट गये। वि० सं० १६१२ में अपने शिष्य मूलचन्द तथा वृद्धिचंद को साथ लेकर पाप अहमदाबाद गये। रास्ते में बड़े-बड़े प्राचीन सब जैन मंदिरों और तीर्थों की यात्रायें की और अपनी जिनप्रतिमा को मान्यता के प्रतीक रूप इन प्राचीन मंदिरों को देखक र प्राप को सत्य का साक्षात्कार हुआ। अहमदाबाद में जाकर प्राप ने ऐसे जैन मुनिराजों को देखा जिनको पहले कभी नहीं देखा था। ये थे श्वेतांबर जैन सवेगी साधु । जब से प्रापने ढूढक मत की दीक्षा ली थी तब तक आप इतना ही जानते थे कि ढूढक मत के साधु तो जैनशास्त्रों में बतलाये हुए मुनि के प्राचार के विपरीत है अन्य कोई भी इस मत में ऐसा साधु नज़र नहीं पाता जो शुद्ध जैनधर्म का अनुगामी हो । अतः इस काल में कोई सच्चा जैन साधु है ही नहीं। जब आपने इन साधुनों के दर्शन किये और इनके निकट सम्पर्क में आये तब आप ने हर्ष का अनुभव किया कि आज भी सच्चे जैन साधु भारत में विद्यमान हैं इसके बाद पूरे दो वर्ष सच्चे गुरु की तलाश में लगा दिये । अन्त में वि० सं० १६१२ में अहमदाबाद में सत्य सनातन जैनधर्म की तपागच्छीय मुनि मणिविजय जी से संवेगी दीक्षा ग्रहण कर और आगमानुकुल सत्यमार्ग को अपनाकर अपनी चिर प्रतीक्षित मुराद को पाया । आपके साथ आपके ही शिष्यरूप में मुनि मूलचन्द जी और मुनि वृद्धिचन्द जी ने भी संवेगी दीक्षा ग्रहण कर सत्यमार्ग को अपनाया । पूज्य मणिविजय जी महाराज ने बूटेराय का नाम बुद्धिविजय, मूलचन्द का नाम मुक्तिविजय और वृद्धिचन्द का नाम वृद्धिविजय रखा । वि० सं० १९१६ में आप अकेले पुनः पंजाब पधारे । अपने दोनों शिष्यों को गुजरात और सौराष्ट्र मे धर्मप्रचार के लिये छोड़ आये । पंजाब में आकर आपने पाठ जैन मंदिरों की प्रतिष्ठाएं कराई जो आपके उपदेश से बनकर तैयार हो चुके थे और पुनः सात वर्ष तक सत्य जैनधर्म का रावलपिंडी से लेकर दिल्ली तक धर्म प्रचार करते हुए आप वि० सं० १९२६ का गुजरांबाला में चौमासा कर गजरात की पोर प्रस्थान कर गये और १६२८ को अहमदाबाद पहुंच गये तथा अन्त समय तक आप गुजरात-सौराष्ट्र में ही रहे अन्त में वि० सं० १९३८ में ७५ वर्ष की आयु में आपका अहमदाबाद में स्वर्गवास हो गया । पाप ने ५० वर्षों में १७ वर्ष ढूढक मत तथा ३३ वर्ष श्वेतांबर जैनधर्म के साधु का जीवन व्यतीत किया।
इस मार्ग को अपनाने तथा इसके प्रचार और प्रसार में विरोधियों ने आपको बहुत कष्ट उपसर्ग तथा परिषद किये परन्तु अापने इन्हें मर्दानगी के साथ वर्दाश्त किया और अपने उद्देश्य में
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