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लुका-ठिया (स्थानकवासी) मत
३३७ कि लुकाशाह ने जिन प्रतिमा को मानने का ही निषेध कर दिया था। परन्तु यह मत सत्य नहीं है कारण यह है यदि जिनप्रतिमा का एकदम उत्थापन करदिया होता तो इस मत के यति जिनमंदिरों का निर्माण तथा उन में जिनप्रतिमाओं की स्थापना, प्रतिष्ठा कदापि न करते कराते । मोर उन की पूजा आदि का करना कराना कदापि न चालू रखते । यदि लौकाशाह ने जिनप्रतिमा का एकदम उत्थापन किया होता तो पंजाब, सौराष्ट्र राजस्थान, गुजरात, मुर्शिदाबाद (बंगाल) मादि सब जनपदों के प्रतिष्ठित मंदिर-प्रतिमाएं कदापि न होते। इन लोगों ने सदा जिनमंदिरों के निर्माण तथा उन में जिनप्रतिमानों की स्थापना-प्रतिष्ठा तथा पूजन आदि किये कराये हैं । यद्यपि पंजाब में वर्तमानकाल में यति गद्दियों का सर्वथा अभाव हो चुका है तथापि उन के बनाये हुए जैनमंदिर माज भी अनेक नगरों में हैं जिन की व्यवस्था पूजनादि वहाँ के जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ करते हैं और उन्हीं के अधिकार में ये सब मंदिर हैं। इस बात की पुष्टि जिनप्रतिमाओं के सिंहासनों पर अंकित प्रतिष्ठा करानेवाले इस गच्छ के यतियों के नाम करते हैं । मात्र इतना ही नहीं। जहां-जहां पर इन की गद्दियां थीं, उनके उपाश्रयों और चैत्यालयों में जिनप्रतिमाओं की पूजा उपासना करते थे, जिन की इन्हों ने स्वयं प्रतिष्ठा एवं स्थापनाएं की थीं। प्राजभी पंजाब में बहुत संख्या में इन के द्वारा स्थापित जैनमंदिर मौजूद हैं ।
___ यदि यह बात ठीक भी हो कि लुकाशाह ने जिनप्रतिमा का एकदम उत्थापन कर दिया था तो यह भी मानना अनुचित नहीं होगा कि लुकामत के ऋषियों में शीघ्र ही शिथिलता आ गई थी और वे जगह-जगह उपाश्रयों में मठाधीश बन गये और पुनः जिनप्रतिमा को मानने लग गये। तथा श्रीपूज्य की पदवियाँ धारण करके यति रूप में प्रकट हुए । जिस का उद्धार लवजी ने वि० सं० १७०६ में करके ढूढक मत की स्थापना की।
परन्ते शुरू से ही लुकाशाह ने जिनप्रतिमा का उत्थापन कर दिया था इस के विपक्ष में एक प्रत्यक्ष प्रमाण भी विद्यमान है कि भामाशाह के पूर्वज तपागच्छीय श्वेतांबर जैन मूर्तिपूजक धर्म को मानते थे । भामाशाह और इस का भाई ताराचन्द भी इसी धर्म के अनुयायी थे । पश्चात ताराचन्द ने लुकामत को स्वीकार करके साधड़ी (राजस्थान) में एक श्वेतांबर जैनमंदिर का निर्माण कराया। उस मंदिर में प्रभु पूजा तो होती थी, पर फल-फूल आदि सचित्त द्रव्य नहीं चढ़ाये जाते थे । ताराचन्द का समय वि० सं० १६५० के लगभग है और लवजी ने जिनप्रतिमा का उत्थापन वि० सं० १७०६ में किया। यदि लुकाशाह ने जिनप्रतिमा का एकदम उत्थापन कर दिया होता तो ताराचन्द कावड़िया साधड़ी में कदापि जैनमंदिर का निर्माण न कराता। दूसरी बात यह है कि लुकाशाह ने साधु दीक्षा का भी निषेध कर दिया था (जिसका हम पहले उल्लेखकर प्राये हैं) इसलिये उसके भूणा जी आदि अनुयायियों ने यति की दीक्षाए ही ली होंगी ऐसा प्रतीत होता है। इससे हमारे इस मत को पूरा बल मिलता है कि लुकाशाह के मत में जिनप्रतिमा पूजन
1. लुकाशाह ने जिनप्रतिमा का उत्थापन किया ऐसा श्वेतांबर जैनों तथा ढूढियों दोनों का
मत है । परन्तु यह मान्यता सत्य नहीं है । 2. साधड़ी में ताराचन्द कावड़िया का यह श्वेतांबर जैनमंदिर प्राज भी विद्यमान है ।
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