________________
दिगम्बर पंथ-एक सिंहावलोकन
३२६
३. मानव शरीर से-फिर वह चाहे स्त्री, पुरुष ३. नंगा पुरुष ही दिगम्बर साधु होकर
अथवा नपुंसक हो सवस्त्र अथवा निर्वस्त्र कर्मक्षय कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हो पाँच महाव्रतों का पालन करके जीव मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ४. केवली को उपसर्ग तथा परिषह होते हैं। ४. केवली को उपसर्ग तथा परिषह नहीं
होते । ५. ब्राह्मण प्रादि चारों वर्णमुक्ति पा ५. शूद्र न साधु हो सकता है, न ही निर्वाण सकते हैं।
पा सकता है । ब्राह्मणादि तीन वर्ण ही
पाँच महाव्रती तथा मुक्त हो सकते हैं। ६. तीर्थ कर के पुत्र तथा पुत्री दोनों हो ६. तीर्थकर के पुत्री नहीं होती।
सकते हैं। ७. गहस्थवेष में. अन्यलिंग वेष में भी मानव ७. नंगे दिगंबर पांच महाव्रतधारी साधु को शरीर से जीव केवल ज्ञान पा सकता है। ही केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्त हो
सकता है। ८. जैन साधु-साध्वी को निरातिचार साधु ८. दिगम्बर साधु मोरपीछी-कमंडल रखता
चर्या पालन में वस्त्र पात्र रजोहरण आदि है। वस्त्र-पात्रादि अन्य उपकरणों को उपकरण उपयोगी हैं।
परिग्रह मानकर स्वीकार नहीं करता। है. जैन साध-साध्वी अपने निमित्त बनाये ६. दिगम्बर पंथ के साधु-प्रायिकापो के गये पाहार आदि को प्राधाकर्मी-सदोष
लिये भक्त श्रावक श्राविकाएं प्राधाकर्मी होने से स्वीकार नहीं करते ।
आहार बनाते हैं और वे ऐसे सदोष
आहार को ग्रहण करते हैं। १०. तीर्थ कर-केवली अपने मुख से साक्षरी १०. केवली मुख से साक्षरी वाणी नहीं बोलते
वाणी से उपदेश देते हैं और श्रोतामों के उनके मस्तक से निरक्षरी ध्वनि निकलती प्रश्नों का समाधान भी करते हैं।
है, जिसे श्रोतागण अपनी-अपनी भाषा में
समझते हैं। ११. केवली भूमि पर विहार करते है । सम- ११. केवली भूमि से अधर आकाश में विहार
वसरण में स्वर्ण सिंहासन पर बैठ कर करते हैं, पृथ्वी से स्पर्श भी नहीं होता । उपदेश देते हैं।
समवसरण में स्वर्ण सिंहासन होने पर भी उससे स्पर्श नहीं करते अपितु अधर ऊँचे आकाश में स्थित होकर मस्तक से निकलने वाली निरक्षरी वाणी से उपदेश देते हैं, श्रोताओं के द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर तीर्थ कर स्वयं उत्तर न देकर उनके
गणधर प्रश्नों का समाधान करते हैं। १२. तीर्थ कर को केवलज्ञान होने के बाद १२. केवल ज्ञान पाने के बाद समवसरण में
देवता समवसरण की रचना करते हैं। अधर में रहकर तीर्थकर की प्रथम निरक्षरी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org