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________________ दिगम्बर पंथ - एक सिंहावलोकन आये तब मगध में रहनेवाला जैनश्रमण संघ शिथिल हो चुका था । इसलिये दोनों में मतभेद के कारण जैनसंघ में दो विभाग पड़ गये । दक्षिण विहारी दिगम्बर तथा उत्तरभारत विहारी श्वेतांबर कहलाये । पर यह मान्यता भी तथ्यहीन है । क्योंकि ऐतिहासिक प्रमाणों से तथा दिगम्बर - श्वेतांबर जैन ग्रंथों से भी एकदम निराधार है । इस का स्पष्टीकरण इसी ग्रंथ के अध्याय ३ – में हम सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के विवरण में स्पष्ट कर आये हैं । 1 ३. तीसरा मत हैं कि महावीर के ६०६ वर्ष बाद ( वि० सं० १३९) में आर्य कृष्ण के शिष्य शिवभूति जिस का गृहस्थ नाम सहस्रमल था ने एकान्त नग्नत्व को लेकर महावीर-शासन से अलग होकर एक नये पंथ की स्थापना की । यह मत दिगम्बर पंथ के नाम से प्रसिद्धि पाया । जो दक्षिण में जाकर थापनीय संघ के नाम से विख्यात हुआ । (दिगम्बरभाई इस मतभेद को वि० सं० १३६ में मानते हैं) ३२१ इस पंथ के साधु एक दम नंगे रहते थे और हस्तभोजी ( दोनों हाथों में लेकर आहार करते) थे । वस्त्र, पात्र आदि उपधि नहीं रखते थे । यद्यपि उपधि (उपकरण) स्थविरमुनि के लिये निरतिचार चरित्रपालन तथा संघ में वृद्ध, बाल, अस्वस्थ आदि मुनियों की वैयावच्च (सेवा श्रु षा, सार-संभाल ) के लिये अनिवार्य हैं। शिवभूति ने वस्त्र पात्र कम्बल संथारा प्रादि उपकरणों को भी परिग्रह की कोटि में मान कर इसे कषाय, मूर्च्छा, भय आदि बहुत दोषों की परम्परा को बढ़ाने वाला मानकर त्याग किया तथापि साधु के लिये शरीर, कमंडलु, मोरपीछी, चटाई, पुस्तक, शिष्य आदि रखना स्वीकार किया । साध्वी के लियें उपर्युक्त उपधि के अतिरिक्त सफेद साड़ी पहनना भी कायम रखा । साध्वी वस्त्र पहनने पर भी पांच महाव्रतधारिणी तथा मोक्षगामिनी की मान्यता कायम रखी । तथा नग्नता के साथ सवस्त्र होने पर भी पाँच महाव्रतों और मोक्ष पाने की मान्यता को स्वीकार रखा (देखें शाक्टायनाचार्य कृत 'स्त्रीमुक्ति और केवली भुक्ति नामक ग्रंथ ) वर्तमान में यापनीय संघ विलुप्त हो चुका है । ४. यद्यपि जैनशास्त्रों में वस्तु में मूर्च्छा-ममत्व को परिग्रह माना है न कि निर्ममत्व भाव से उपकरणों को रखने में परिग्रह कहा है । दिगम्बर साधु भी मोरपीछी, कमंडलु आदि ग्रनेक उपकरणों को रखते हुए परिग्रह नहीं मानते । इस पंथ के यापनीय संघ ने सवस्त्र साध्वी को पाँच महाव्रत तथा मुक्ति को स्वीकार किया है । परन्तु वर्तमान दिगम्बर पंथ जिसे दिगम्बराचार्य कुंदकुंद ने स्थापित किया था, वह स्त्री को पाँच महाव्रत तथा मृक्ति का एकदम निषेध करता है । ५. परन्तु दिगम्बर पंथ के अनेक प्राचीन धुरंधर प्राचार्य नंगेपन को औत्सर्गिक लिंग मानते हुए भी श्रपवादिक लिंगवाले मुनियों को वस्त्र, पात्र, कम्बल, संथारा आदि उपकरण रखने का समर्थन करते हैं और उन्हें नंगे दिगम्बरों के समान ही पाँच महाव्रतधारी निर्ग्रथ श्रमण स्वीकार करते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में पुलाकादि पाँच प्रकार के निग्रंथ माने हैं । वहाँ भी वस्त्र पात्रादि उपकरणधारी को भी सर्वथा परिग्रह रहित निग्रंथ माना है | ( तत्त्वार्थ सूत्र -- ९ / ४८ ) । 1. श्वेतांबर तथा दिगम्बर दोनों ही दो प्रकार के जैनसाधु मानते हैं । जिनकल्पी और स्थविरकल्पी, वर्तमान में दिगम्बर मुनि को स्थविरकल्पी साधु दिगम्बर पंथी भी मानते । तथा जिनकल्पी साधु का ये लोग भी सर्वथा अभाव वत्तमान काल में मानते हैं । ( श्रमण भगवान महावीर क० वि०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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