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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
सिर पर कुछ नहीं अोढ़ते, तथा उस्तरे से दाढ़ी की हजामत भी नहीं करते । पर वे दाढ़ी को नोच डालते हैं । अर्थात् दाढ़ी तथा सिर के बालों को उखाड़ने को वे लोच कहते हैं । सिर के बीच के थोड़े भाग में बाल होते हैं। इसलिये उनके सिर में बड़ी ढढरी पड़ गई होती है ।
वे निम्र'थ हैं, भिक्षा में खाद्य पदार्थ (गृहस्थों की आवश्यकता से) जो बचा खुचा हुआ होता है वही लेते हैं।
उन की स्त्रियाँ नहीं होती, गुजरात की भाषा (नागरी लिपि) में उन के धर्मग्रंथ लिखे होते हैं। वे गरम किया हुआ पानी पीते हैं। यह सर्दी लगने के भय से नहीं, किन्तु ऐसे मन्तव्य से कि पानी में जीव है और उबाले बिना यदि पीया जावे तो उस जीव का नाश होता है । यह जीव परमेश्वर ने बनाया है और उसे (उबाले बिना) पीने में बहुत पाप है। पर जब उबाला जाता है तब उस में जीव नहीं रहता और इसी कारण से वे अपने हाथ में अमुक प्रकार की पीछियां (ौधे) लिये फिरते हैं। ये पीछीयां उन के डंडों के साथ रूई (ऊन) की बनाई हुई सीसपेनों जैसी लगती हैं। इन पीछीयों द्वारा ज़मीन अथवा दूसरी जगह, जहाँ कि उन्हें चलना होता है, साफ़ करते हैं। क्योंकि ऐसा करने से किसी जीव की हत्या न हो। इस वहम के लिये उनके बड़ों तथा नेताओं को मैंने बहुत बार ज़मीन साफ़ करते हुए देखा है। उनके साथी बड़े नायक के हाथ नीचे, उन की आज्ञा में रहनेवाले लाखों मनुष्य होंगे और प्रत्येक वर्ष इन में से एक (नेता-प्राचार्य) चुना जाता है । मैंने उन में पाठ-नौ वर्ष की आयु के बच्चे भी देखे जो देव के समान (सुन्दर) लगते थे। वे भारत के नहीं किन्तु योरुप के हों, ऐसे लगते थे। इतनी उम्र में उनके माता-पिता उन्हें धर्म के लिये अर्पण कर देते हैं।
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वे पृथ्वी को अनादि मानते हैं और मानते हैं कि-इतने समय में (अनादिकाल में) उनके ईश्वर ने २३ धर्मप्रवर्तकों को भेजा । और इस अन्तिम युग में दूसरा एक, और (प्रवर्तक) भेजा। अर्थात् चौबीस हुए । इस चौबीसवें को हुए दो हजार वर्ष हो गये हैं। (तत्पश्चात् अब कोई धर्म
1. इस समय छापेखाने (Printing Press) नहीं थे। विद्यार्थी लोग पाठ्य पुस्तकों को
हाथ से लिख लेते थे। 2. गरम पानी का व्यवहार श्वेतांबर मूर्तिपूजक साधुओं केलिये अनिवार्य है। किन्तु
अन्य जनसम्प्रदाय के साधु कच्चा छना हुआ तथा धोवन आदि का पानी भी ले लेते हैं । 3. जैनदर्शन की मान्यता है कि जीव अनादि है उसे ईश्वरादि कोई बनाता नहीं। पादरी ने
यह बात अज्ञानता से लिखी है। 4. जैनदर्शन की मान्यता है कि ईश्वर सृष्टि का कर्ता हरता नहीं है और न ही वह किसी
अवतार को भेजता है। मानव स्वयं ही अपनी आत्मसाधना से तीर्थकर बनकर धर्मप्रवर्तक बनता है । चौबीस धर्मप्रवर्तक कर्मो का क्षय कर अन्त में निर्वाण पाकर सदा के लिये जन्म-मरण रहित होकर सिद्ध स्वरूप अरूपी परमात्मा हो जाते हैं।
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