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________________ मौर्य साम्राट और जैनधर्मं २७३ २- प्रभावक चरित्र, ३ - सम्प्रति कथा आदि अनेक ग्रंथों में इस सम्राट के बड़े प्रशंसनीय वर्णन पाये जाते हैं । जिनेन्द्रदेव की भक्ति, जैन श्रमण श्रमणियों की सेवा-श्रूषा-सम्मान, श्रावक-श्राविकाओं का साधर्मीवात्सल्य, दीन-अनाथों की अनुकम्पा तथा उनकी सार-संभाल, जैनमंदिरों, जिनप्रतिमानों, स्तूपों- स्मारकों का निर्माण, जीर्ण-शीर्ण मंदिरों का जीर्णोद्धार ( मरम्मत व पुनर्निर्माण ) जैनधर्म की प्रभावना प्रचार-प्रसार के लिये उसे श्रावकोत्तम श्रेणिक बिम्बसार की कोटि से भी अधिक को में रखा जा सकता है और सर्व महान् जैननरेशों में इसकी गणना की जाती है । वास्तव में बौद्ध अनुश्रुति में बुद्धधर्म के लिये अशोक ने जो कुछ किया बतलाते हैं, जैन अनुश्रुति में जैन धर्म के लिये सम्प्रति ने उससे कुछ अधिक ही किया बताया जाता है । । सम्प्रति ने अपने श्राधीन सब राजाओं, सामंतों आदि को आदेश दिया था कि "यदि तुम लोग मुझे स्वामी मानते हो तो अपने राज्यों में भी जैनमंदिरों में मेरे राज्य के समान अट्ठाई महोत्सव करो । सुविहित जैन श्रमणों को नमन करो, अपने देशों में जैनसाधुओं को सब प्रकार की विहार में सुविधाएं दो । स्वयं जैनधर्म स्वीकार करो और अपनी प्रजा को भी जैनधर्मी बनाओ। मुझे तुम्हारे धन भंडार की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि मैं संतोषी और प्रभुभक्त हूं । अवन्ती की ग्रामदनी से मुझे संतोष है अतः उपर्युक्त कार्यों में मुझे सहयोग दो, ऐसे कार्यों से ही मुझे खुश कर पानोगे । मुझे तो यही प्रिय है" (निशीथ चूर्णी) वीसेण्ट स्मिथ के अनुसार सम्प्रति ने अरब, तुर्किस्तानमादि यवन देशों में भी जैनसंस्कृति के केन्द्र प्रथवा संस्थान स्थापित किये थे । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के परिशिष्ट पर्व प्रभृति जैनग्रंथों के आधार से प्रो० सत्यकेतु विद्यालंकार का कहना है कि एक रात्रि में सम्प्रति के मन में यह विचार प्राया कि अनार्य देशों में भी जैनधर्म का प्रचार हो और जैन साधु-साध्वियां स्वतंत्र स्वच्छंद रीति से सब देशों में विचरण करके सदा जैनधर्म का प्रचार व प्रसार कर सकें । इसलिये उसने ग्रनार्य देशों में भी जैन प्रचारकों, जैनसाधुत्रों को जैनधर्म के प्रचार लिये भेजा । साधुनों ने राजकीय प्रभाव से शीघ्र ही वहाँ की जनता को जैनधर्म और जैन आचार-विचारों का अनुयायी बना दिया ( श्रनायं देशों को भी आर्य देश बना लिया ) । सम्प्रति ने अपने सारे राज्य में सवा लाख ( १२५००० ) नये जैनमंदिरों का निर्माण कराया। सवा लाख ( १२५००० ) जैनतीर्थ करों की नई प्रतिमाएं बनवाकर मंदिरों में स्थापित कराई ।" तेरह हज़ार (१३०००) पुराने जैन मंदिरों का जीर्णोद्धार ( नवनिर्माण तथा मुरम्मत ) 1. हम लिख ये हैं कि भगवान महावीर से लेकर सम्प्रति के समय तक भारत में २५ ।। आर्य देश थे (जहां पर जैनधर्म का सर्वाधिक प्रभाव था ) । परन्तु प्रार्य देशों की सीमाएं समय समय पर बदलती रहती हैं, एक समान नहीं रहतीं । समय पाकर आर्यदेश अनार्य हो जाते हैं और अनार्यदेश आर्य हो जाते हैं। जबकि सिन्धु- सोविर, गांधार और कैकय आदि प्राचीन काल में आर्यदेश थे किन्तु पाकिस्तान बनने पर अनार्य देश हो गये । भगवान महावीर के समय के बाद सम्प्रति के प्रचार से प्रांध्र द्रविड, कुड़क (कुर्ग ) महाराष्ट्र आदि अनेक देशों को जैन श्रमण श्रमणियों के सुखपूर्वक विहार करने के योग्य बन जाने से ये सब आर्य देश हो गये । 2. सम्प्रति द्वारा स्थापित जिनप्रतिमाएं आज भी सर्वत्र पाई जाती हैं। जिन पर इस सम्राट ने अपना नाम अपनी कीर्ति से बचने के लिये अंकित नहीं कराया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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