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________________ चन्द्रगुप्त मौर्य और जैनधर्म (१३) पुण्याश्रव कथाकोष का जिक्र ऊपर किया गया है। उसमें भी चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध श्रवणबेलगोला के साथ जोड़ा गया है । परन्तु इस ग्रन्थ में जिस चंद्रगुप्त के जैनसाधु बन कर अनशन व्रत करने का उल्लेख है वह अशोक का पितामह चन्द्रगुप्त नहीं अपितु अशोक का पोत्र चन्द्रगुप्त है । पुण्याश्रव कथाकोष में पटना के राजाओं का वृतांत लिखते हुए पहले मौर्यवंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त का इतिहास लिखा है । नन्द द्वारा चाणक्य के अपमानित होने पर यह ग्रंथ कहता है कि : अब चाणक्य को क्रोध प्राया और वह नगर से निकलकर बाहर जाने लगा। मार्ग में चाणक्य ने चिल्लाकर कहा - "जो कोई मेरे परमशत्र राजा नन्द का राज्य लेना चाहता हो मेरे पीछे-पीछे चला श्रावे ।" चाणक्य के ऐसे वाक्य सुनकर एक चन्द्रगुप्त नाम का क्षत्रीय जो कि अत्यन्त निर्धन था, उस ने विचार किया कि मेरा इसमें क्या बिगड़ता है । यह सोचकर वह चाणक्य के पीछे हो लिया । चाणक्य चन्द्रगुप्त को लेकर नंद के किसी प्रबल शत्रु से जा मिला और किसी उपाय से नन्द का सकुटुम्ब नाश करके उस ने चंन्द्रगुप्त को वहाँ का राजा बनाया । चन्द्रगुप्त ने बहुत काल तक राज्य करके अपने पुत्र बिन्दुसार को राज्यदेकर चाणक्य के साथ दीक्षा ग्रहण की। बिन्दुसार भी अपने पुत्र अशोक को राज्य देकर महामुनि हुआ । अशोक के भी एक पुत्र का नाम कुनाल रखा गया । कुनाल की बाल्यावस्था थी, अभी वह पठन-पाठन में ही लगा हुआ था कि उसी समय राजा अशोक को अपने किसी शत्रु पर चढ़ाई करने के लिये जाना पड़ा। जो मंत्री नगर में रह गया था, उसके नाम राजा ने एक आज्ञा लिख कर भेजी कि प्रध्यापक को चावल प्रादि दे उसे संतुष्ट कर कुमार को अच्छी तरह पढ़ाना । राजा का यह पत्र पढ़ने वाले ने इस प्रकार पढ़ा" कुमार को अन्धा कर देना" । राजा की श्राज्ञा जैसे पढ़ी गई वैसी ही काम में लाई गई । कुमार के नेत्र फोड़ दिये गये । थोड़े दिनों में शत्रु को जीत कर जब अशोक वापिस आया तब पुत्र की ऐसी दशा देखकर उसे बहुत शोक हुप्रा । थोड़े दिनों बाद कुनाल का विवाह किसी चन्द्रानना नाम की कन्या से कर दिया गया। जिससे एक चन्द्रगुप्त नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । राजा अशोक प्रपने पोते चन्द्रगुप्त को राज दे दीक्षित हुआ । अब प्रशोक के बाद चन्द्रगुप्त राज्य करने लगा । एक दिन नगर के बाहरी उद्यान में कोई अवधिज्ञानी मुनि पधारे। वनपाल ने राजा को मुनि के आने की खबर दी । राजा चन्द्रगुप्त मुनि को वन्दन करने के लिये उद्यान में श्राया । मुनि को नमस्कार करके उनके पास बैठ गया । धर्म श्रवण करने के बाद राजा ने मुनि से अपने पूर्वभव पूछे । मुनिराज ने उसके पूर्व भवों का वर्णन कह सुनाया । चन्द्रगुप्त अपने पूर्वभव सुनकर प्रसन्न हुआ और मुनिराज को नमस्कार करके अपने नगर में लौट आया । तथा सुख से राज्य करने लगा । एकदा रात्रि के समय इस चन्द्रगुप्त ने पिछले पहर में भविष्य में अनिष्टसूचक सोलह ' स्वप्न देखे | इसके श्रागे सम्पूर्ण वही कथा लिखी है जो कि भद्रबाहु चरित्र में पायी जाती है । इस प्रकार पुण्याश्रव कथाकोष के अनुसार श्रवणबेलगोला के साथ जिस चन्द्रगुप्त का संबन्ध है वह प्रशोक का पितामह नहीं बल्कि उसका पोता है । 1. प्रध्यापयताम् के स्थान पर अंधाप्यताम् पढ़ लिया गया । 2. रामचन्द्र मुमुक्ष कृत पुण्याश्रव कथा कोष ( नन्दिमित्र की कथा ) Jain Education International २६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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