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________________ गुजरांवाला जैनों का आगमन २४५ था । यह अपने पिता की मृत्यु के बाद राज्याधिकारी बना । राजा महासिंह के पुत्र रणजीतसिंह का जन्म ई० स० १७८० (वि० सं० १८३७) में इसी नगर में हुआ था । महासिंह की मृत्यु के बाद रणजीतसिंह राजगद्दी पर बैठा । इसने गुजरांवाला नगर की सुरक्षा के लिए नगर को घेरते हुए चहारदिवारी कलानुमा बनाई और नगर में श्राने-जाने के लिए इस दीवार में आठ दरवाजे रखे । राजा रणजीतसिंह बहुत बहादुर और निडर था । इसका विचक्षण और महान वीर सेनापति डोगरा जाति का सरदार हरिसिंह नलवा था । रणजीतसिंह ने इसके सहयोग से सारे पंजाब में पेशावर तक अपनी राज्यसत्ता जमा ली । लाहौर को राजधानी बनाकर बड़े राज्य का स्वामी बना । लाहौर में दरबार लगा कर इसने शेरे पंजाब महाराजा रणजीतसिंह का पद पाया । सरदार हरिसिंह नलवा की वीरता की इतनी धाक थी कि शत्रु इससे घबरा कर भाग निकलते थे । काबुल के पठान इसका नाम सुनते ही थर-थर कांपते थे । सरदार हरिसिंह नलवा ने अपने रहने के लिए सात मंजिला महल बनाया था जो गुजरांवाला में सात मंजिला हवेली के नाम से प्रसिद्ध था । इस बहादुर जरनैल की, एवं चड़तसिंह और महासिंह की मृत्यु गुजरांवाला में हुई थी। इनकी चितास्थानों पर समाधी नाम से स्मारकों का निर्माण किया गया। रणजीतसिंह की मृत्यु होने पर इसकी समाधि लाहौर में बनाई गई । रणजीतसिंह अपनी जन्मभूमि गुजरांवाला को बड़े आदर के साथ गोकुल कह कर सम्बोधन किया करता था । इसकी मृत्यु के बाद इसके पुत्र दलीपसिंह को अंग्रेजी सरकार कैद करके इंगलैंड ले गई और रणजीतसिंह के सारे राज्य पर अंग्रेजों ने अधिकार जमा लिया । दलीपसिंह की मृत्यु इंगलैंड में ही हुई । उसे भारत वापिस नहीं आने दिया । जैनों का श्रागमन राजा सरदार महासिंह ने गुजरांवाला बसाने पर इसे अनाज की बड़ी मंडी बनाया। यहां अन्य नगरों से आकर सब जातियों के लोग बसने लगे । पंजाब के भिन्न-भिन्न नगरों से ओसवाल ( भावड़ा) जैन परिवार भी यहाँ प्राकर स्थाई रूप से बस गए । इनके गोत्र दूगड़, बरड़, लोढ़ा, जख, मुन्हानी, लीगा तिरपेंखिया, पारख, गद्दहिया आदि थे । व्यवसाय कपड़ा, अनाज, सराफा, मनियारी ( बसाती), धातु के बरतन, लोहा, घी तेल, अत्तार, किराणा, बान सूतली, लकड़ी का सामान, चिकित्सा आदि अनेक प्रकार के थे । ये लोग प्रायः ऐसे व्यापार करते थे जिनसे हिंसा आदि दोषों से बचा जावे | । गुजरांवाला में आबाद हो जाने पर गुजरात नगर (पंजाब) से जो गुजरांवाला से लगभग ५४ मील उत्तर की तरफ़ था उत्तरार्धं लौंकागच्छीय यति ( पूज) श्री दुनीचन्द जी अपने शिष्य यति बंसतारिख तथा प्रशिष्य परमारिख को साथ में लेकर गुजरांवाला में आबाद हो गये । ये वहाँ प्रपने साथ प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की पाषाण प्रतिमा तथा जिनकुशल सूरि के चरणपट्ट भी लाये थे, इन लोगों ने यहाँ पर अपनी गद्दी स्थापित की और अपने साथ लाये हुए चरणपट्ट ( चरणपादुका) तथा प्रतिमा को एक दुकान मोल लेकर उसके ऊपर चौबारे में विराजमान करके घर चैत्यालय की स्थापना की । यति जी महाराज बालब्रह्मचारी, पवित्र चरित्रवान तथा उच्चकोटी के जैन सिद्धान्तों के विद्वान थे । ज्योतिष, चिकित्सा शास्त्र तथा मंत्र तंत्र के पारगामी और चमत्कारी थे । जैनागम दर्शन शास्त्र के प्रकांड विद्वान संत थे । महाराजा रणजीतसिंह इन पर बड़ी श्रद्धा रखता था । हर संकट के समय वह उन का आशीर्वाद लेने श्राता था । आपके आशी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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