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________________ २०६ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म मान-सम्मान आदि जन समाज में बड़े उच्च कोटि के थे। घर गृहस्थी के त्यागी होते हुए भी चलअचल सम्पत्ति के स्वामी थे और नर-नारियों को दीक्षा देकर अपने शिष्य-शिष्यायें बनाते थे। इन के देहांत के बाद मुख्य शिष्य उनकी गद्दी तथा सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होता था। इन्हीं के सद्प्रयासों तथा प्रभाव के कारण ही इस जनपद में ऐसे विकट समय में भी जैनधर्म लुप्त होने से बचा रहा तथापि वर्तमान में इनके अनुयायी अत्यन्त अल्प संख्या में रह गये थे। सिन्ध-पंजाब जनपद में जैनधर्म के ह्रास के मुख्य कारण इस जनपद में एक तो मुसलमानों के उपरोपरि अाक्रमण, जिनमन्दिरों तथा प्रतिमाओं का ध्वंस, जैनों में ही जिनप्रतिमा विरोधी सम्प्रदाय तथा आर्यसमाज के प्रसार द्वारा जैनधर्म-सिद्धान्त, मन्दिरों प्रादि के विरुद्ध जबर्दस्त प्रचार एवं संवेगी श्वेतांबर जैन साधु-साध्वियों का आवागमन एक दम बन्द हो जाने के कारण यहाँ के निवासी जैनधर्म के सत्य स्वरूप को भूलने लगे, मन्दिर की पूजा उपासना को त्याग कर पथभ्रष्ट हो गये। विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी तक तो उनकी संतानें जैनधर्म के वास्तविक स्वरूप से एक दम अनभिज्ञ हो चुकी थीं। जिनमन्दिरों द्वारा उपासना करने वालों का प्रायः प्रभाव हो चुका था। जिनप्रतिमा विरोधी संप्रदायों के प्रचार और प्रसार से जैन लोगों ने मंदिरों से सम्बन्ध छोड़ दिया था। दूसरी तरफ म्लेच्छ (मुसलमान) इन्हें ध्वंस करते रहे. जैनसमाज के प्रतिमा, विरोधी संप्रदायों ने भी जैनमन्दिरों से मूर्तियाँ हटाकर अपने-अपने धर्म स्थानों के रूप में परिवर्तित कर लिया अथवा जैनेतर मूर्तिपूजक संप्रदायों ने इन मन्दिरों से जैन मतियों को हटाकर अपनी मान्यता के देव-देवियों की मूर्तियाँ स्थापित कर अपने धर्मस्थानों के रूप में परिवर्तन कर लिया अथवा जनप्रतिमाओं को ही अपने देवी-देवताओं, अवतारों के रूप में अपनाकर जैनमन्दिरों पर अधिकार जमा लिया । अनेक मन्दिरों को ध्वंस करके मस्जिदों के रूप में बदल लिया अथवा जिनमूर्तियों को समाप्त ही कर दिया। इन अनेक कारणों से इस जनपदों में प्राचीन जैनमन्दिरों का लगभग अभाव सा हो गया तथापि यति (ज्य) लोगों ने अपने गद्दियों और प्रभाववाले नगरों में जिनमन्दिरों तथा प्रतिमानों का निर्माण, स्थापनाएं. प्रतिष्ठाएं, पूजा-उपासना उनका संरक्षण प्रादि सब चालू रखे तथा अपनी योग्यता के अनुसार सद्धर्म का प्रचार और प्रसार भी करते रहे जिसके कारण जैनधर्म की ज्योति प्रखंड प्रज्वलित रही। आगे चलकर यति लोग भी शिथिल हो गये, अन्त में इनकी शिष्य परम्परा भी समाप्त हो गई। आज पंजाब में एक भी यति विद्यमान नहीं है । . आश्चर्य का विषय तो यह है कि जिनप्रतिमा विरोधी लौंकागच्छीय यतियों ने भी जिन प्रतिमा और मन्दिर की मान्यता को कायम रखकर अनेक जैनमन्दिरों का निर्माण कराया तथा संरक्षण किया और उनकी पूजा-उपासना स्वयं भी करते और अपने उपासकों को भी करने का उपदेश तथा प्रेरणा करते थे । यद्यपि इस मत के प्रवर्तक लौकाशाह (वि० सं० १५३१) ने तथा उनके पश्चात् होने वाले लवजी स्वामी (वि० सं० १७०६) ने और इनके अनुयायियों ने जिन मन्दिरों की मान्यता के विरोध में एड़ी से चोटी तक पूरे जोर-शोर के साथ कोई कमी उठा नहीं रखी। आज भी इस मत के अनुयायी जिनमन्दिरों और जिनमन्दिरों द्वारा उपासना करने को मिथ्यात्व मानते हैं। इस मत की उत्पत्ति का वर्णन आगे करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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