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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
३. इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि मोहन-जो-दड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा, रोपड़, ढोलबाहा आदि के उत्खनन से न तो बौद्धों का कोई अवशेष मिला है और न ही वैदिक सभ्यता का कोई चिन्ह मिला है।
४. एवं फ़ाहियान, हुएनसांग आदि चीनी बौद्ध यात्री जो भारत आये थे, उन्होंने भी पंजाब और सिंधु जनपदों में बौद्ध भिक्षुत्रों, बौद्ध संघारामों अथवा बुद्धधर्म के प्रभाब का कोई उल्लेख नहीं किया। इससे भी यही फलित होता है कि बौद्ध और वैदिक संस्कृति का इन जनपदों में कोई विशेष प्रभाव नहीं था।
५. मोहन-जो-दड़ो आदि सिन्धुघाटी सभ्यता के उत्खनन से अर्हत् ऋषभ तथा शिव की योगमुद्रा वाली मूर्तियाँ-सीले अवश्य मिली हैं। इससे ज्ञात होता है कि भारतवर्ष में ऋषभ के समान ही शिव की मान्यता-उपासना वैदिक आर्यों के भारत में आने से पहले से ही अति प्राचीन काल से प्रचलित थी। अतः शिव वैदिक आर्य सभ्यता के प्रतीक नहीं हैं। यदि पंजाब, सिंधसौवीर आदि जनपदों में कोई प्राचीन स्मारकों के अवशेष मिलते हैं तो वे सब जैनों के ही हैं । हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शिव ऋषभ का ही दूसरा नाम था।
६. पंजाब, सिन्ध-सौवीर आदि जनपदों में यदि कोई प्राचीन स्तूप अादि विद्यमान हैं अथवा उन के अवशेष भी यदि कोई विद्यमान हैं, तो वे भी जैनों के ही होने चाहिये, वैदिक तथा बौद्धों के नहीं । यदि इन स्तूपों आदि को कोई पुरात्ववेत्ता बौद्धों का मान लेता है तो यह उस की अनभिज्ञता का ही सूचक है।
७. यद्यपि हुएनसांग ने सिंहपुर में जैनश्रमणों को जिस स्तूप के समीप नाना प्रकार के तप करते हुए देखा था उसे अशोक स्तूप लिखा है परन्तु यह उस की अज्ञता अथवा अपने सम्प्रदाय का मिथ्या व्यामोह ही प्रतीत होता है । कारण यह कि १. बौद्ध स्तूप के निकट जैनों की उपासना का कोई प्रयोजन नहीं था और न ही कोई मेल खाता है । २. तथा इस प्रसंग का जहां इस ने उल्लेख किया है, वहाँ बौद्ध भिक्षुषों, उपासकों का कोई उल्लेख नहीं किया। अतः वहाँ बौद्धों का सर्वथा अभाव था यही सिद्ध होता है । ३. इसी स्थान से जैनमंदिरों, स्तूपों के अवशेष मिले हैं किन्तु बौद्धों का कोई अवशेष नहीं मिला।
८. अर्हत् ऋषभ ही शिव के रूप में भारतवर्ष के उपास्य थे। इस का स्पष्टीकरण हम पहले कर आये हैं।
वैदिकधर्म और पंजाब हम लिख आये हैं कि गाँधार, सिन्धु-सौवीर, कुरुक्षेत्र तथा केकय (पंजाब) जनपदों को जैनागमों में प्रार्य देश कहा है । वैदिक धर्म के सैद्धान्तिक ग्रंथ बोधायन में सिन्धु-सौवीर को अस्पृष्ट देश कहा है और वहाँ जाने वाले ब्राह्मणों को फिर संस्कार योग्य बतलाया है। इस उक्ति की पुष्टि के लिये हम यहाँ देवल स्मृति का भी उद्धरण देते हैं। यथा---
'सिन्धु-सौवीर-सौराष्ट्रास्तथा प्रत्यन्तरवासिनः ।
अंग-बंग-कलिंगाश्च गत्वा संस्कारमर्हतिः ॥१॥ अर्थात्- यदि कोई (वैदिक धर्मानुयायी) सिंधु-सौवीर सौराष्ट्र, अंग, बंग, और कलिंग इन अनार्य देशों में जावेगा उसे वापिस लौटने पर संस्कारित होना पड़ेगा।
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