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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म और गद्दी पर दो हाथवाली स्त्री की आकृति खुदी हुई है, जिसकी दक्षिण दिशा की तरफ़ एक हाथी खड़ा है।
ये दोनों मूर्तियां इन्द्रेश्वर' के मंदिर की कमान की दीवालों में बड़ी मजबूती के साथ लगा दी हैं।
(११) कांगड़ा के कालीमंदिर में भी पहले एक लेख था । सर ए. कनिंघहम अपनी रिपोर्ट में लिखता है कि- “मैंने जब इस मंदिर की मुलाकात ली तब यह लेख नहीं मिल सका। यहां पर लोगों से पूछने पर इसके विषय में किसी ने मुझसे कोई हाल ही नहीं कहा। सौभाग्य से इस लेख की दो नकलें मेरे पास हैं जो सन् ईस्वी १८४६ में मैंने अपने हाथ से लिख ली थीं। इसकी मिति है वि. सं. १५६६ और शक संवत् १४३१ जो दोनों ईस्वी सन् १५०६ के बराबर होती है इस लेख के प्रारंभ में-नमो स्वस्ति जिनाय । इस प्रकार जिन को नमस्कार किया गया है।
(१२) श्री अभयदेव सूरि नवांगी टीकाकार के समकालीन प्राचार्य गुणचन्द्र सूरि जो वज्री शाखा के चन्द्रगच्छ के प्राचार्य श्री अभयदेव सूरि के शिष्य थे और विक्रम की बारहवीं शताब्दी में हो गये हैं। उन्होंने जालंधर कांगड़ा प्रदेश में विचरण कर अनेक वादियों को जीता था और जैनधर्म का प्रचार-प्रसार भी किया था जिसका वर्णन इस प्रकार है
"श्रीमान् श्रीवज्रमूलः प्रबलतर महोत्तुंगशाखा शताद्या सतेजः । साधु-संघादिपदलपटलोग्रौर कीर्ति प्रसूनः ।। शश्चद्वांछातिरक्तं फल निवयमलं पुण्यभाजां। प्रयच्छतू गच्छे स चन्द्रगच्छेरो जगति विजयते कल्पवृक्षः ॥१॥ तस्मिन्प्रभुः श्री गणचन्द्रनामः सूरीश्वरः संयमिनां धुरिणः ।
वभूव जालंधरपत्तनेपि यो वादिवृदं निखिलं जिगाया ॥२॥ ३-ज्वालामुखी में जैनप्रतिमा
अन्य सभी स्थानों में पाषाण निर्मित प्रतिमाएं मिलती हैं परन्तु ज्वालामुखी मंदिर से दो-ढाई मील की दूरी पर नागार्जुन (प्रसिद्ध जैनाचार्य पादलिप्त सूरि के शिष्य के नाम से) नामक प्रसिद्ध स्थान है। वहां पर कुछ वर्ष पहले धातु की दो जैन प्रतिमाएं विद्यमान थीं। इनमें से एक छोटी सी तीर्थकर की प्रतिमा थी और एक तांबे का गोलाकार यंत्र था। जिस पर २४ तीर्थंकरों के नाम खदे इए थे। परन्तु वे दोनों प्रतिमाएं प्राज वहां नहीं हैं । ज्वालामुखी मंदिर के पास कई खण्डहर हैं जिनमें । जैन मूर्तियों के प्राप्त होने के समाचार मिलते रहते हैं। ज्ञात होता है कि ये जैन मंदिरों के खण्डहर होंगे।
इसकी पुष्टि जयसाग रोपाध्याय द्वारा रचित नगरकोट की चैत्य परिपाटी से भी होती है उन्होंने लिखा है कि
1. यह राजा इन्द्रचन्द्र का निर्माण कराया हुआ जैनमदिर था। संभवत: जैनों के यहां न रहने पर
यहां के हिन्दुओं ने इसमें से जैनमूर्तियों को हटाकर शिवलिंग स्थापित करके शिवमंदिर में बदल लिया । होगा। 2. Archaeological Survey of India Report 1972-73 vol II. Sir A. Cunnigham.
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