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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
(३) वि० सं० १६६७ में वाचक समयसुन्दर जी ने उच्चनगर में श्रावक-पाराधना नामक ग्रंथ बनाया था। (यहाँ भी उच्चनगर का सिन्ध देश में वर्णन है)
(४) मुनि विद्याविजय जी (काशीवाले श्री विजयधर्म सूरि जी के शिष्य) ने "मारी सिन्ध यात्रा,' नामक पुस्तक में लिखा है कि उच्चनगर सिन्ध में था। सिन्ध की सीमाएँ बदलती रहती हैं । एक बार इसकी सीमा तक्षशिला तक भी थी। ऐसा ऐतिहासकार मानते हैं ।
अतः इससे भी उच्चनगर के तक्षशिला के समीपवर्ती होने की पुष्टि होती है।
(५) उच्चनगर से जैनों का अति प्राचीनकाल से सम्बन्ध चला आ रहा है तथा तक्षशिला के समान ही यह जैनों का केन्द्र स्थल रहा है । इसी उच्चनगर में शाह ईश्वरचन्द्र जी दूगड़ विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में मेवाड़ में उदयपुर के निकटस्थ माघाटपुर नगर से सपरिवार पाकर आबाद हुए थे। यह दूगड़ परिवार सर्वप्रथम पंजाब में आया था। यथा
___ "ईश्वर [चन्द्रः] स० ईश्वरो राज्य-विरुद्ध-भयात् पश्चिमोत्तर देशे उच्चनगरे समागतः ॥ (ये ईश्वरचन्द्र जी दूगड़ वंश संस्थापक शाह दूगड़ जी की हवीं पीढ़ी में हुए हैं)
अर्थात्- श्री दूगड़ जी की नवीं पोढ़ी में श्री ईश्वरचन्द्र हुए। वे राज्य विरुद्ध के भय से भारत के पश्चिमोतर सीमा प्रान्त देश के उच्च नगर में आये । उस समय वहाँ प्रोसवाल श्वेतांबर जैनों के ७०० घर थे।
पोसवाल जैनों की वंशावलियों में विक्रम की १८वीं शताब्दी तक उच्चनगर में प्रोसवाल जैनों की आबादी का उल्लेख है। उनमें प्रोसवालों के अनेक गोत्रों तथा परिवारों के उल्लेख हैं।
अतः तक्षशिला, पुण्ड्रवर्धन, उच्चनगर आदि प्राचीन काल में बड़े महत्वपूर्ण नगर रहे हैं। इन नगरों में हजारों की संख्या में जैन परिवार आबाद थे । इस क्षेत्र में श्री ऋषभदेव से लेकर विक्रम की १७वीं शताब्दी तक जैन साधु-साध्वियों के आवागमन के प्रमाण उपलब्ध हैं ।
___ इस क्षेत्र में संस्कृत में लघुशान्ति स्तोत्र के कर्ता प्राचार्य मानदेव सूरि भी पधारे थे, उस समय उन्होंने उच्चनगर आदि नगरों में अनेक जनेतर परिवारों को जैनधर्मानुयायी बनाया था। (पं० कल्याण विजय)। विक्रम की १६वीं शताब्दी तक श्वेतांबर जैन मुनियों ने अनेक श्रावक-श्राविकाओं को दीक्षाएँ भी दी।
तक्षशिला का विश्वविद्यालय प्राचीनकाल में यहाँ एक विश्वविद्यालय भी था। इस विश्वविद्यालय में अनेक संसार प्रसिद्ध प्राचार्य शिक्षा देते थे । बड़ी-बड़ी दूर से यहाँ विद्यार्थी लोग शिक्षा पाने पाते थे। मात्र भारत से ही नहीं अपितु विदेशों के विद्यार्थी भी यहां आकर शिक्षा प्राप्त करने में अपना गौरव समझते थे। बौद्ध जातक साहित्य से इस विश्वविद्यालय के सम्बन्ध में जो बातें ज्ञात होती हैं उन्हें हम संक्षेप से यहाँ उल्लिखित करते हैं।
१-इस विश्वविद्यालय में शिक्षा प्रारम्भ करने की प्रायु १६ वर्ष की थी। इससे पूर्व 1-देखें इसी ग्रंथकर्ता द्वारा लिखित-सद्धर्मसंरक्षक श्री बूटेराय जी का जीवन चरित्न पृष्ठ १६० ।। 2-The Jatka edited by prof E. B. Cowell Vol I p. 126 Vol II p. 193 Vol v
p.66. etc.
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