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________________ गांधार-तक्षशिला में जैनधर्म १२१ करता हूँ। ४–सर जान मार्शल का अनुमान जैन श्वेतांबर प्राचार्य श्री मानदेव सूरि द्वारा रचित प्रबन्ध पर आधारित है । जो इस प्रकार है ___"सप्तशती नामक देश में कोरंटक नाम का नगर था, जहाँ भगवान महावीर स्वामी का मन्दिर था। वहां उपाध्याय देवचन्द्र रहते थे । फिरते-फिरते वह एक बार बनास में प्राये, वहाँ उन्हें प्राचार्य पद मिला और वे देवसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। जब इनका शत्रुजय तीर्थ पर स्वर्गवास हो गया तब उनके पट्ट पर प्रद्योतन सूरि प्रतिष्ठित हुए। (श्लोक ४-.-१६)। विहार करते हुए प्रद्योतन सूरि नकुल में प्राये। वहाँ के श्रावक जिनदत्त के पुत्र मानदेव ने इनके पास दीक्षा ली और चन्द्रगच्छ के प्राचार्य बने । जया और विजया नाम की दो देवियां मानदेव (सूरि) की सेविकाएं हो गईं (श्लोक १७-२५) । अब ऐसा हुमा कि तक्षशिला नगरी में जहाँ पाँच सौ जैन मन्दिर थे, उस समय वहाँ अचानक बीमारी (महामारी) फैल गयी और लोग धड़ाधड़ मरने लगे। बहुत उपाय करने पर भी महामारी की शांति नहीं हुई। यह देखकर शासनदेवी ने प्रकट होकर कहा कि म्लेच्छों के अत्याचार से सब देवी-देवता यहाँ से चले गये हैं और प्राज से तीसरे वर्ष तुरुष्कों द्वारा तक्षशिला का ध्वंस हो जावेगा। इसका उपाय यही है कि तुम सब लोग तक्षशिला छोड़कर दूसरे स्थानों में चले जागो। दूसरा उपाय पूछने पर देवी ने कहा कि नट्ट ल (नाडोल नगर राजस्थान) में गुरु मानदेव सूरि विराजमान हैं उनके चरणों का प्रक्षाल जल (चरणों को धोकर प्राप्त किया हुआ जल) लाकर अपने-अपने घरों में छिड़क दो, महामारी मिट जाएगी (श्लोक ३१-४३)। तक्षशिला के जैनसंघ ने वीरदत्त श्रावक को वि० सं० २८० (ई० स० २२३) में प्राचार्य श्री के पास नाडोल भेजा। उसकी विनती पर आचार्य श्री मानदेव सूरि ने लघुशांति स्तव की (संस्कृत में) रचना करके उसे दी। तक्षशिला के श्रीसंघ ने उस शांति स्तव का घर-घर में जाप किया और इससे जल मंत्रित करके अपने-अपने घरों में छिड़का, जिससे महामारी रोग की शांति हुई (श्लोक ४५-७५)। तीन वर्षों के बाद तुरुष्कों ने इस प्राचीन महानगरी का विध्वंस किया। बड़े-बूढ़ों से सुना है कि वहाँ जो पाषाण और धातुमयी मूर्तियां थीं वे सब अब तक भूमिगृहों में विद्यमान हैं। (श्लोक ७६-७७) । ५-श्री धनेश्वर सूरिकृत शत्रुजय महात्म्य में वर्णन है कि सेठ भावड़ शाह के पुत्र जावड़ शाह ने वि० सं० १८७ (ई० स० १३०) में शत्रुजय तीर्थ का उद्धार किया। उस समय उसने तक्षशिला से भगवान श्री ऋषभदेव की मूर्ति ले जाकर शत्रुजय गिरि पर स्थापित की। उस समय तक्षशिला में जगमल राजा का राज्य था। हम यहाँ पर श्री कल्पसूत्र में दी गई निग्रंथ गच्छ (गण) की स्थविरावली का उल्लेख करते हैं ताकि हमें भगवान महावीर के बाद के जैन इतिहास को जानने में सुविधा रहे। 1-Sir Johan Marshall; Archaeological Annual 1914-15 तथा प्रभाचन्द्र सूरि कत प्रभावक चारित्र बम्बई से प्रकाशित १६०९ में । मानदेव सूरि प्रबन्ध १६२-१९८ । 2-श्वेताम्बर जैनों के ८४ गच्छों में से कोरंटिया गच्छ इसी नाम से विख्यात हुअा प्रतीत होता है। (जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक १ पृ० ३१ में गच्छ नं० ६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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