SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म प्रचार का मुख्याधार स्मारकों को तोड़-फोड़ कर धराशायी कर दिया गया। अनेक जैनमंदिरों, धर्मस्थानों को मस्जिदों के रूप में बदल दिया गया । ज्ञान भण्डारों, साहित्य-संग्रहालयों को जलाकर भस्मीभूत कर दिया गया । तथ्य है कि अलाउद्दीन खिलजी के अत्याचारों ने तो छः मास तक नित्यप्रति भारतीय साहित्य को भट्टी में जलाकर हमाम गर्म किए थे । अर्थात् इनको आग में जला कर नहाने के लिए पानी गर्म किया जाता रहा । मात्र इतना ही नहीं परन्तु इन अमूल्य साहित्य रत्नों से कई वर्षों तक हिन्दु की होली जलाई गयी । इससे अनुमान किया जा सकता है कि उस समय से पहले, भारत में कितना विशाल साहित्य होगा ? जिसे द्वेषियों ने क्रूरता के साथ भस्मीभूत कर दिया। हम जानते हैं कि उड़ीसा में खारवेल के समय, पटना में श्रुतकेवली भद्रबाहु - स्थूलीभद्र के समय, मथुरा में प्राचार्य नागार्जुन के समय और अन्त में विक्रम की छठी शताब्दी के प्रथमचरण में जैनाचार्य देवद्धि गणि क्षमाश्रमण के समय में सौराष्ट्र की वल्लभी नगरी में श्रमणसंघों की क्रमशः विराट सभाओं का आयोजन करके प्राचीन जैनागमों-शास्त्रों का संकलन करके ताड़पत्रों पर लिख लिखवा कर सुरक्षित रखने के बृहत्प्रयास किये थे । पर वर्त्तमान काल में बहुत खोज करने पर भी वल्लभी की लिपि तक के अथवा उसके प्रासपास के सौ-दो सौ वर्षों के बाद तक के लिपि किए गए साहित्य का एक पत्र भी प्राप्त नहीं हुआ । जिस साहित्य समूह को सैंकड़ों हजारों मुनियों ने अपने हाथों से तथा अनेक वैतनिक विद्वान लेखकों संकलन किया तत्पश्चात् यह कार्य इतना व्यापक हो गया कि उनके शिष्यों-प्रशिष्यों को अभ्यास कराने के लिए एक - एक ग्रन्थ की कई-कई प्रतियां लिखने की आवश्यकता पड़ती रही । ग्रागे चलकर जिसने जो कोई नवीन रचना की वह तत्काल ही लिख ली गई । इस में थोड़ा भी सन्देह नहीं कि जैन श्रमणों ने हजारों ही नहीं लाखों ग्रंथ लिखे और लिखवाये । इतना ही नहीं इन महात्यागियों ने अपने पठन-पाठन के लिए अनेक जैनेतर साहित्य की भी प्रतिलिपियां कर करवा कर उनको अभ्यास के पश्चात् ग्रंथभंडारों में सुरक्षित किया । जैन श्रावकों ने भी विद्वतापूर्ण अनेक ग्रंथों की रचनाएं कीं। ऐसे प्राचीन साहित्य के उपलब्ध न होने से ऐसा अनुमान निःसंदेह होता है कि धर्म द्वेषियों आतता द्वारा इस साहित्य को बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया । अन्यथा इतनी बृहत्संख्या में वल्लभी तक के लिखे गए ग्रंथों का कुछ भाग तो मिलता ! संभव है कि कुछ ग्रंथभंडार ऐसे भी होंगे जो दुष्टों से बचाने के लिये कहीं गुप्त रूप से सुरक्षित किये गये हों परन्तु पीछे के लोगों को ज्ञात न होने से कहीं पड़े हों और कुछ वहीं पड़े-पड़े नष्ट हो गये हों । जैसा हाल जैन - साहित्य का है । वैसा ही अन्य मतावलंवियों के साहित्य का भी है। आज भारत के बाहर विक्रम की चतुर्थ शताब्दी के बाद का भारतीय साहित्य तो मिल जाता है पर भारत में जो कुछ साहित्य मिलता हैं वह विक्रम की आठवी नवीं शताब्दी के पहले का लिपि किया नहीं मिलता है । कहने का आशय यह है कि भारत के ऋषि मुनियों ने साहित्य सर्जन में कभी कमी नहीं रखी । गृहस्थ विद्वानों ने भी अनेक प्रकार के साहित्य की रचना की । श्रद्धालु और भगत गृहस्थों ने भी उन त्यागमूर्ति आचार्यों की साहित्य रचना की सफलता के लिए अपने अथक परिश्रम से न्यायोपार्जित लक्ष्मी को लगाकर मानव भव को सफल बनाने कमी नही रखी। कारण यह था कि इस कलिकाल में सर्वज्ञों, तीर्थंकरों के अभाव में जिनमन्दिर-मूर्ति एवं आगम ही जैनशासन को चिरस्थाई जीवित रखने के आधार हैं । इन मन्दिरों, मूर्तियों, आगामों के प्रचार और प्रसार में आज तक जैन श्रमणों का पुरुषार्थ चालू है । यही कारण है कि विश्व का सबसे प्राचीन आर्हत (जैन) धर्म आज तक Jain Education International ६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy