________________
मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
अर्थात् ---जन्म, जरा, मरण से मुक्त जिनेश्वर प्रभु ने इस लोक में दो ही मार्ग बतलाये हैं-एक है उत्तम श्रमण-श्रमणियों का और दूसरा है उत्तम श्रावक-श्राविकाओं का ।
गृहस्थों में पुरुष को श्रावक कहते हैं तथा स्त्री को श्राविका कहते हैं। श्रावक-श्राविका का भी आर्हत् शासन में महत्वपूर्ण स्थान है।
श्रावक का प्राचार मुनिधर्म के लिये नीव के समान है इसीके ऊपर मुनि के प्राचार का भव्य प्रासाद निर्मित हुआ है।
श्रावक पद का अधिकारी
श्रावक-श्राविका होने के लिए भी कुछ आवश्यक शर्ते हैं। प्रत्येक गृहस्थ भाव श्रावक नहीं कहला सकता किन्तु विशिष्ट व्रतों को अंगीकार करने वाला गृहस्थ पुरुष या स्त्री ही श्रावकश्राविका कहलाने का अधिकारी है ।
जो व्यक्ति प्रबजित होकर अणगार धर्म (साधुधर्म) स्वीकार नहीं कर सकता, वह जिनेश्वर देव द्वारा प्ररूपित श्रावक धर्म के बारह व्रतों को अंगीकार कर आगार (गृहस्थ) धर्म का पालन करता है।
श्रावक धर्म की पूर्वभूमिका
जैन परम्परा के अनुसार श्रावक-श्राविका बनने की योग्यता प्राप्त करने के लिये निम्नलिखित सात दुर्व्यसनों का त्याग करना आवश्यक है। यथा
१-जुआ खेलना, २-मांसाहार, ३-मदिरा पान, ४-वैश्यागमन, ५-- शिकार, ६चोरी, ७--पर-स्त्री-गमन (स्त्री के लिये पर-पुरुष गमन)।
ये सातों दुर्व्यसन जीवन को अधःपतन की ओर ले जाते हैं। इनमें से किसी भी व्यसन में फंसा हुअा अभागा मानव प्रायः सभी व्यसनों का शिकार बन जाता है । इन सातों का त्याग करने वाला ही श्रावक-श्राविका बनने का पात्र है।
श्रावक-श्राविका बनने के लिये
उपर्युक्त सात व्यसनों के त्याग के अतिरिक्त गृहस्थ में अन्य गुण भी होने चाहिये। जैन परिभाषा में उन्हें मार्गानुसारी गुण कहते हैं । इन गुणों में से कुछ ये हैं
___ नीतिपूर्वक धन उपार्जन करना, शिष्टाचार का प्रशंसक होना, गुणवान पुरुषों का मादर तथा संगति करना, मधुरभाषी, लज्जाशील, शीलवान होना, उचित आचरण- माता, पिता, स्वामी, उपकारी, भाई-बहनों, अपने से बड़ों, विद्यागुरु, धर्मगुरु, पति-पत्नी, सन्तान, रिश्तेदारों का भक्त एवं सेवक होना। धर्मविरुद्ध, कुलविरुद्ध, देश विरुद्ध कार्य न करना, आमदनी से अधिक खर्च न करना, प्रतिदिन धर्मोपदेश सुनना, धर्म ग्रंथों का स्वाध्याय करना, देव (तीर्थकर) गुरु (पाँच महाव्रतधारी साधु-साध्वी) की भक्ति करना, नियमित समय पर परिमित-सात्विक भोजन करना, अतिथि दीन-हीन जनों का एवं साधु-संतों का यथोचित सत्कार करना, गुणों का पक्षपाती होना, अपने आश्रित जनों का पालन-पोषण करना, आगा-पीछा सोचकर काम करना, परोपकार परायण होना, काम क्रोधादिक प्रान्तिरिक शत्रुओं को दमन करने के लिये उद्यत रहना, इंद्रियों पर काबू रखना, इत्यादि । इन गुणों से युक्त गृहस्थ, श्रावक धर्म का अधिकारी है ।
तथा प्रत्येक तत्त्व के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानने की अभिरुचि से तत्त्वों के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org