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जैनधर्म का महत्व
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चय दिया है।
सारांश यह है कि प्रभु महावीर के परम पवित्र प्रवचन (उपदेश) का आधार मनःकल्पना और अनुमान की भूमिका पर नहीं था, परन्तु उनके प्रवचन में केवलज्ञान द्वारा हाथ में रखे हुए आँवले के समान समस्त विश्व के स्वरूप को प्रत्यक्ष जानकर लोकालोक के मूल-तत्वभूत द्रव्य-गुणपर्याय के त्रिकालवर्ती भावों का दिग्दर्शन था अथवा आधुनिक परिभाषा में कहा जाए तो उसमें विराट विश्व या अखिल ब्रह्माण्ड (Whole Cosmos) की विधि विहित घटनाएं (Natural phenomena) उनके द्वारा होती हुई व्यवस्था (Organisation), विधि का विधान और नियम (Law and order) का प्रतिपादन तथा प्रकाशन था।
श्रमण भगवान महावीर तथा अहिंसा साढ़े बारह वर्ष की कठिन तपस्या और घोर योगचर्या के पश्चात् भगवान् महावीर-वर्धमान को केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति हुई। वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी जीवन-मुक्त परमात्मा हुए। अब तीर्थकर कर्म प्रकृति का पूर्ण विकास उनके महान व्यक्तित्व में हुआ। केवलज्ञान की प्राप्ति से भगवान महावीर सारे विश्व के त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को हाथ की अंगुलियों के समान प्रत्यक्ष जानने लगे। उस समय वे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य के जीवित पुञ्ज थे। जैनागमों में सर्वत्र भगवान् महावीर को सर्वज्ञ सर्वदर्शी माना है। ज्ञातपुत्र महावीर के समकालीन बौद्धों के पिटकों में भी भगवान महावीर को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी स्वीकार किया है । बौद्धों के 'अंगुत्तरनिकाय' नामक ग्रंथ में लिखा है कि ज्ञातपुत्र महावीर सर्वज्ञाता और सर्वदर्शी थे। उनकी सर्वज्ञता अनन्त थी। वे चलते, बैठते, सोते, जागते हर समय सर्वज्ञ थे।' 'मज्झिम निकाय' में उल्लेख है कि ज्ञातपुत्र महावीर सर्वज्ञ हैं । वे जानते हैं कि किस किसने किस प्रकार का पाप किया है और किसने नहीं किया है।
भगवान् महावीर अहिंसा तत्त्व की साधना करना चाहते थे। उसके लिए उन्होंने संयम और तप ये दो साधन पसन्द किए। उन्होंने यह विचार किया कि मनुष्य अपनी सुख प्राप्ति की लालसा से प्रेरित होकर ही अपने से निर्बल प्राणियों के जीवन की आहुति देता है और इस प्रकार सुख की मिथ्या भावना और संकुचित वृत्ति के कारण व्यक्तियों और समूहों में द्वेष बढ़ाता है, शत्रु ता की नींव डालता है और इसके फलस्वरूप पीड़ित एवं पददलित जीव बलवान होकर बदला लेने का निश्चय तथा प्रयत्न करते हैं और बदला लेते भी हैं। इस तरह हिंसा और प्रतिहिंसा का ऐसा विषचक्र तैयार हो जाता है कि लोग संसार के सुख को स्वयं ही नरक बना देते हैं। हिंसा के इस भयानक स्वरूप के विचार से महावीर ने अहिंसातत्त्व में ही समस्त धर्मों का, समस्त कर्तव्यों का और प्राणिमात्र की शान्ति का मूल देखा। यह विचार कर उन्होंने वैरभाव को तथा कायिक और मानसिक दोषों से होने वाली हिंसा को रोकने के लिये तप और संयम का अवलम्बन लिया।
सयम का सम्बन्ध मुख्यतः मन और वचन के साथ होने के कारण उन्होंने ध्यान और मौन को स्वीकार किया भगवान् महावीर के साधक-जीवन में संयम और तप यही दो बातें मुख्य हैं
1. अं. नि०१-२२०. 2. म. नि० २-२१४.२८.
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