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आलोक प्रज्ञा का
अहंकार-विसर्जन
७. अहंकारस्य विलयः, विनीतस्याऽस्ति लक्षणम् । यदा जागर्त्यऽहंकारस्तदा स्वपिति नम्रता ॥
अहंकार का विलय करना विनीत का लक्षण है। जब अहंकार जागता है तब विनम्रता सो जाती है ।
८. अहंकारो विनीतत्वं, द्वयं नैकत्र तिष्ठति ।
साधुत्वं विद्यते तत्र, यत्राऽहंकारसंक्षयः ।।
अहंकार और विनीतता-ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते । जहां साधुता है वहां अहंकार नहीं टिकता, उसका क्षय हो जाता है।
६. साधुत्वं च विनीतत्वं, भिन्नं नैवास्ति वस्तुतः । एकः साधुविनीतो नो, दुश्श्रद्धेय मिदं वचः ॥
वास्तव में साधुता और विनीतता भिन्न नहीं है । कोई साधु है और विनीत नहीं है तो यह वचन दुश्श्रद्धेय है----इस पर श्रद्धा करना बहुत कठिन है।
अनुशासन का पालन १०. उपादेये स्थिरा वुद्धिः, हेयं यो हातुमिच्छति ।
संयमो नियमो लब्धः, स स्पृशत्यनुशासनम् ॥ गुरुदेव ! अनुशासन का पालन कौन कर सकता है ? वत्स ! जिस की बुद्धि उपादेय के प्रति स्थिर है, जो हेय को
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