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________________ आलोक प्रज्ञा का ४५ भंते ! श्रुतज्ञान की परम्परा चिरंजीवी कैसे रह सकती है? वत्स ! श्रुतज्ञान की परम्परा अविच्छिन्न और चिरकालिक रहे, यह आचार्य का दायित्व है। वे उसके लिए वैसा चिन्तन और वैसा कार्य करते हैं। श्रुत क्यों ? १३०. श्रुतेन जायते पुंसां, व्युद्ग्रहस्य विमोचनम् । ज्ञानं यथार्थभावानां, तेनाऽध्ययनमाश्रितम् ।। गुरुदेव ! श्रुत से क्या प्राप्त होता है ? भद्र ! श्रुत से कलह का विमोचन होता है, यथार्थभावों का ज्ञान होता है, इसलिए श्रुत का आलम्बन लिया गया है । वचन की सम्पदा १३१. आदेयं वचनं पुण्यं, मधुरं वचनं तथा । अनिश्चितमसंदिग्धं, एषा वचनसंपदा । आर्यवर ! वचन की सम्पदा क्या है ? वत्स ! आदेय वचन बोलना, पवित्र वचन बोलना, मधुर वचन बोलना, अनिश्चित विषय में अनिश्चित बोलना, निश्चित विषय में असं दिग्ध बोलना-यह सब वचन की संपदा है । सत्य के दो प्रकार १३२. अस्तिसत् वाग्गतं सत्यं, तत्सापेक्षमुदीरितम् । वाचा यत् प्रतिपाद्यं स्यात्, निरपेक्ष भवेन्न तत् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003161
Book TitleAlok Pragna ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages80
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size3 MB
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