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मालोक प्रज्ञा का
किसी साधक ने पूछा-गुरुदेव ! अभी तक अनुभव नहीं जागा है। उसे जगाने का उपक्रम क्या हो सकता है ?
आचार्य ने कहा-शिष्य ! उसके लिए तीन शर्ते आवश्यक हैं-१. अकरणीय कार्य न करने का संकल्प २. संकल्प के अनुरूप भाव और मन का निर्माण ३. परात्मा या अहंत् के साथ तादात्म्य । जब ये तीनों बातें होती हैं तब अनुभव का प्रस्फुटन होता है।
मन का संचालक कौन ?
५५. विपाकः कर्मणो यादृग, यादृग् भावस्तमाश्रितः ।
मनः प्रवर्तते तादृग, भावाधीनं मनो यतः ।।
भन्ते ! लोकव्यवहार में कहा जाता है-'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ।' क्या मन ही सबको चला रहा है ? ___वत्स ! जो सुना जा रहा है वह पूरा सत्य नहीं है। मन मी दूसरों के चलाए चलता है। कर्मशास्त्र के अनुसार कर्मों का जैसा विपाक होता है वैसा भाव बनता है। जैसा भाव होता है उसी के अनुरूप मन प्रवर्तित होता है, क्योंकि मन भाव के अधीन है । वह स्वतन्त्र नहीं है।
__ योगी और भोगी?
२६. यस्य जागति लोकस्य, प्रत्याख्यानस्य चेतना ।
स योगी स च भोगी यः, प्रत्याख्यानविजितः ॥
आर्यवर ! क्या योगी और भोगी में कोई भेदरेखा खींची
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