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आलोक प्रज्ञा का
मान्यता और धारणा
६०. मान्यता धारणा यास्ति, चिरकालेन पोषिता ।
सद्यः सा विलयं गच्छेन्नेति चिन्त्यं विचक्षणः ।। ६१. अभीप्साऽन्वेषणं मार्गः, सहायो भावना तथा ।
दृढनिश्चय इत्येते, हेतवः परिवर्तने ।
भंते ! प्रत्येक व्यक्ति मान्यताओं और धारणाओं के आधार पर जीता है । उनका विलय कैसे हो सकता है ?
वत्स ! यह सत्य है कि मनुष्य चिरकाल से मान्यताओं और धारणाओं को पालता आ रहा है। वे जल्दी ही विलीन हो जाएं, ऐसा विचक्षणपुरुषों को नहीं सोचना चाहिए। उनके परिवर्तन में हेतु बनते हैं-अभीप्सा-बदलने की इच्छा, अन्वेषण-खोज, मार्ग, सहायक, भावना-अभ्यास और दृढनिश्चय ।
तुलनात्मक अध्ययन का गुर
६२. अहिंसादीनि तत्त्वानि, समानीति न विस्मयः ।
विशेषो विस्मयस्थानं, सोऽन्वेष्टव्यो मनीषिणा ।।
आर्यवर ! किसी धर्म का तुलनात्मक अध्ययन कैसे होना चाहिए?
वत्स ! किसी धर्म का अध्ययन समानता से ही नहीं, विशेषता या भेदपूर्वक भी होना चाहिए। अहिंसा आदि तत्त्व सभी धर्मों में समान हैं, यह आश्चर्य का विषय नहीं है । अहिंसा के विषय में जो भेद है, वह विस्मय का स्थान है । मनीषी व्यक्ति को उसका अन्वेषण करना चाहिए ।
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