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आलोक प्रज्ञा का
इसकी फलश्रुति है— दायित्व - पालन का अवबोध । इन सबका आधार है- शरीरसिद्धि -- शारीरिक विकास ।
ये चारों विकास प्रशिक्षण के बिना संभव नहीं हैं । उसके पश्चात् विद्यार्थी स्वाध्याययोग में प्रवृत्त हो सकता है ।
पूजा करें बहुश्रुत की
४८. स्वच्छता शौर्यमाशा च धैर्यमौदार्यमात्मगम् । उच्चता सुगभीरत्वं, बहुश्रुते श्रुता अमी ॥
४६. यः करोति स्वयत्नेन, साक्षात्कारं निजात्मनः । चिदानन्दमयश्चात्मा, तन्मयः पूज्यते जनैः ॥
भंते ! बहुश्रुत में ऐसे कौन से गुण होते हैं, जिनके कारण वे लोगों के द्वारा पूजनीय बनते हैं ?
वत्स ! बहुश्रुत में निर्मलता, पराक्रम, आशा, धैर्य, उदारता, उच्चत्व और गाम्भीर्य - ये सभी गुण आत्मगत होते हैं ।
जो अपने प्रयत्न से अपने आपका साक्षात्कार करता है, वह चिदानन्दमय -- आत्ममय हो जाता है और वह जन-जन के द्वारा पूजा जाता है ।
जातीय घृणा
५०. यथा यथा विवर्धतेऽभिमन्यता निरंकुशा । तथा तथा प्रवर्धते, घृणा च जातिसंभवा ॥
जैसे-जैसे अहंकार निरंकुश होकर बढता है वैसे-वैसे जातीय घृणा बढती है ।
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