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आलोक प्रज्ञा का
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७. निष्पत्तिकारकत्वं च, बध्नाति शिष्यचेतनाम् ।
वात्सल्यं च सहिष्णुत्वं, ममता समता तथा ॥
शिष्य की चेतना को बांधने के पांच गुर हैं---१. निष्पनिकारकत्व-शिष्य को दीक्षित कर उसे निष्पत्ति तक पहुंचाना, परिपक्व बनाना २. वात्सल्य ३. सहिष्णुता ४. ममता ५. समता ।
तितिक्षा की कसौटियां
८. वर्धतां शक्तिरन्तस्था, वर्धतां च मनोबलम् । वर्धतामन्तरानन्दः, तत्सोढव्याः परीषहाः ॥
आन्तरिक शक्ति बढे, मनोबल बढे और आन्तरिक आनन्द बढे, इसलिए परीषहों को सहना चाहिए । ६. न कष्टं नाम कष्टाय, कष्टापोहाय तन्मतम् ।
अस्मिन् कष्टाकुले लोके, कष्टमुक्तेरसौ पथः॥
कष्ट को सहना कष्ट के लिए नहीं है। वह कष्ट को दूर करने का उपाय है। इस कष्टाकुल जगत् में कष्ट को सहना ही कष्टमुक्ति का उपाय है।
दुर्लभ संयोग
१०. यावदारम्भबाहुल्यं, यावत् परिग्रहग्रहः ।
चतुष्कं दुर्लभं तावत्, इति संज्ञाऽपि दुर्लभा ।
जब तक मनुष्य आरम्भ की बहुलता और परिग्रह की पकड़ में रहता है तब तक उसके लिए मनुष्य-जन्म की सार्थकता, धर्म
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