________________
७२
जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
सार्थकता है। याद वह कोरा या अकेला है तो सार्थकता आधी हो जाती है, पूरी नहीं रहती। वह पूरी होती है अभ्यास या प्रयोग के द्वारा। पक्षी के दो पंख होते हैं। क्या वह दाएं पंख से उड़ता है या बाएं से ? उत्तर होगा, न वह केवल दाएं पंख से उड़ता है और न वह केवल बाएं पंख से उड़ता है। वह दोनों से उड़ान भरता है। एक पैर से चला जा सकता है, पर वह लंगडापन है। दोनों पैरों से ही ठीक चला जा सकता है। सिद्धान्त और अभ्यास-ये दो पंख हैं। इनके सहारे से ही ठीक उडान भरी जा सकती है। ये दो पैर हैं, इनके सहारे ही ठीक चला जा सकता है।
एक ओर वैज्ञानिक है और दूसरी ओर आध्यात्मिक या धार्मिक। यह समन्वय का दूसरा पक्ष है। दोनों में बहुत दूरी है। वैज्ञानिक समझता है कि धर्म कोरा बकवारा है और धार्मिक समझता है कि वैज्ञानिक नास्तिक है, व्यर्थ की बातें प्रचारित करता है। दोनों एक दूसरे पर छींटाकशी करते हैं। किन्तु चिन्तनशील लोग मानते हैं कि अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय होना चाहिए। आज के विद्यार्थी में यह दृष्टिकोण विकसित होना चाहिए। विनोबा बहुत बार कहतेअब धर्म का युग नहीं है, अध्यात्म का युग है, राजनीति का युग नहीं है, विज्ञान का युग है। अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय होना चाहिए। आचार्य तुलसी ने इस समन्वय की बात को आगे बढ़ाया । जीवन विज्ञान के पाठ्यक्रम में अध्यात्म और विज्ञान का पूरा समन्वय है। इसके क्रम में प्राचीन विद्याओं-अध्यात्म, योगदर्शन, कर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र का समावेश है तो अद्यतन विद्याओं-एनोटामी, यूरोलॉजी, साइकोलॉजी बायोकेमिस्ट्री आदि का भी समावेश है। इन दोनों विद्याओं-प्राचीन
और अर्वाचीन का अध्ययन इस जीवन विज्ञान की पद्धति में कराया जाता है। सन् १६८४ में जोधपुर में हम थे। वहां भारत सरकार के दो बड़े संस्थान हैं-केन्द्रीय रूक्ष क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (Central Arid Zone Research Institute) और 'काजरी ओर्डिनेन्स लेबोरेटरी'। दोनों में सैकड़ों वैज्ञानिक कार्यरत हैं। इन वैज्ञानिकों तथा लेक्चरारों का भी सहयोग रहा। उनके अनेक लेक्चर हुए और जीवन-विज्ञान के विद्यार्थियों ने उनका लाभ उठाया। जीवन-विज्ञान प्रशिक्षण की यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org