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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
पैदा की जा सके, यह अपेक्षित है। पर विभिन्न प्रकार के लोग होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म का मोह नहीं छोड़ता। धार्मिक आस्थाएं अलग अलग होती हैं। वहां ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती कि ईश्वरीय सत्ता में आस्था पैदा हो। इसलिए शिक्षा के साथ नैतिकता का विचार-विमर्श करते समय हमें एक दूसरा आधार खोजना होगा। वह आधार खोजा है शारीरिक अनुशासन। जीवन विज्ञान के क्षेत्र में दूसरे सारे संदर्भो और परिभाषाओं से हट कर नैतिकता को शरीर के साथ जोड़ा है। वह नैतिकता का बहुत बड़ा हेतु बन सकता है। यह स्पष्ट है कि नैतिकता का एक ही स्रोत या एक ही कारण नहीं माना जा सकता। अलग अलग कारण हो सकते हैं, किन्तु शारीरिक अनुशासन बहुत बड़ा कारण है।
प्राचीन काल में परिवर्तन की प्रक्रिया पर चिन्तन चला तो दो समाधान सामने आए अध्यात्म के क्षेत्र में-वैराग्य और अभ्यास, निसर्ग और अधिगम। वे व्यवहार के क्षेत्र में भी घटित हो सकते हैं।
ये दो विकल्प हैं। निसर्ग और वैराग्य वाली बात आनुपातिक दृष्टि से बहुत कम होती है। बहुत कम व्यक्ति वैराग्य को प्राप्त होते हैं और बहुत कम व्यक्ति निसर्गतः कुछ प्राप्त कर सकते हैं। हमारे विचार-विमर्श का विषय अभ्यास ही बन सकता है, निसर्ग और वैराग्य हमारे लिए विमर्शयोग्य विषय नहीं है।
प्रश्न है कि शिक्षा में नैतिकता का उपाय क्या हो सकता है? विद्यार्थी को नैतिकता का उपाय देना, अभ्यास देना, शिक्षा का परम कार्य है। यदि शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थी को नैतिकता का बोध नहीं कराया जाता, अभ्यास और उपाय नहीं दिया जाता तो मानना होगा कि नैतिकता और शिक्षा का कोई संबंध ही नहीं है। पर आज उसकी अनिवार्यता महसूस हो रही है कि नैतिकता शिक्षा के साथ अवश्य जुड़े, उसका उपाय और अभ्यास जुड़े। इस प्रक्रिया में सबसे पहला तत्त्व है-शरीर- बोध और शारीरिक अभ्यास । शारीरिक अनुशासन के बिना मानसिक और भावानात्मक अनुशासन संभव नहीं है और उसके बिना नैतिकता संभव नहीं है। शरीर और मन दोनों जुड़े हुए हैं। शरीर को छोड़कर मन की और मन को छोड़कर शरीर की व्याख्या
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