________________
ध्यान कब सधेगा?
आज पूरे विश्व में ध्यान का वातावरण है। पश्चिम हो या पूर्व-विश्व के हर कोने में ध्यान की चर्चा है, ध्यान के आयोजन हैं और ध्यान करने वालों की भीड़ भी है। यह वातावरण किसी परमात्मा ने नहीं बनाया है, मनुष्य ने बनाया है और अपने हाथों बनाया है। यदि मनुष्य प्रवृत्तिमूलक नहीं होता तो ध्यान का यह वातावरण नहीं बनता। युग इतना प्रवृत्तिमय हो गया, इतनी व्यस्तता और इतना तनाव है कि वह आखिर क्या करे? कोई उपाय ही नहीं है इसलिए ध्यान की शरण में जाना अनिवार्य हो गया।
गुरुदेव यात्रा करते-करते पटना पहुंचे। पटना विश्वविद्यालय में स्वागत का कार्यक्रम। राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर ने कहा-आचार्यवर! आपने जो अणुव्रत आंदोलन का प्रारंभ किया है, उसको आज मैं बहुत उपयोगी मानता हूं। इस प्रवृत्ति के युग में निवृत्ति की बहुत आवश्यकता है। अगर निवृत्ति नहीं आएगी तो कोरी प्रवृत्ति आदमी को लील जाएगी, उसे विक्षिप्त बना देगी। इसलिए आज निवृत्ति की बहुत आवश्यकता है, श्रमण परम्परा ने इसी निवृत्ति पर अधिक बल दिया है।
प्रवृत्ति को छोड़ा नहीं जा सकता। यह आवश्यक है, किन्तु निवृत्तिशून्य प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है। ध्यान एक निवृत्ति है। ध्यान की साधना मनुष्य को अपने भीतर ले जाती है। वह संकुचित हो जाता है। वह बाहर फैला हुआ है, संकोच होना जरूरी है यह संकोच और विकोच की प्रक्रिया है। कभी संकुचित होना और कभी फैलना। योग में अश्विनी मुद्रा को शक्ति-विकास के लिए बहुत जरूरी माना जाता है। उस मुद्रा का रूप है संकोच करना और विकोच करना, सिकुड़ना और फैलना। ऐसा होता है तभी शक्ति का जागरण होता है।
ध्यान का प्रयोजन है प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर जाना। निवृत्ति के लिए चार बातें बहुत आवश्यक हैं-१. गुरु का उपदेश २. श्रद्धा ३. सदा अभ्यास ४. मन के स्थिरता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org