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तब होता है ध्यान का जन्म
और तुम दोनों एक साथ मरें। क्या अगले जन्म में तुम फोर्ड बनना चाहोगे?
सेक्रेटरी बोला-'बिल्कुल नहीं, मैं ऐसी मूर्खता करना नहीं चाहता।' फोर्ड ने पूछा- क्यों?'
'मैं क्यों चाहूं? आप अपने कार्यालय में नौ बजे आते हैं। आपका चपरासी नौ बजे आता है। आपका कर्मचारी ग्यारह बजे आता है। जैसे ही चार बजते हैं, काम से छुट्टी लेकर वे घर चले जाते हैं। आप रात्रि में नौ बजे सक काम करते हैं। जब रात्रि में घर जाते हैं तब फाइलों का गट्ठर साथ लेकर जाते हैं। फिर वहां जाकर काम करते हैं। आपके दिमाग से यह काम का बोझ चौबीस घण्टे उत्तरता नहीं है। आपके चपरासी और कर्मचारी के दिमाग में काम का कोई भार रहता ही नहीं। इसलिए ऐसी मूर्खता मैं क्यों करूंगा कि मैं फोर्ड बनूं।
___ ध्यान के मामले में हमें कर्मचारी की मनोवृत्ति को अपनाना है। ध्यान के क्षेत्र में यह मनोवृत्ति अच्छी नहीं है कि चौबीस घण्टा अनावश्यक भार लदा रहे। हम ऐसी वृत्ति का निर्माण करें, जब आवश्यक हो, विचार आए और जब आवश्यक न हो, विचार को विसर्जित कर दें। ध्यान का प्रयोजन न निर्विचार होना है और न काम के विचार का ठप्प हो जाना है। सारे लोग निर्विचार होकर बैठ जाएं, प्रार्थना में लग जाएं तो खाने को भी नहीं मिलेगा, पहनने को भी नहीं मिलेगा। हमारी जीवन की सारी यात्रा विचार-विकास के साथ जुड़ी हुई है। मनुष्य ने जो विचार किया है, विकास के लिए किया है। ध्यान का यह प्रयोजन नहीं है कि हम विकास की यात्रा को उलट दें। यदि हम ध्यान को व्यापक बनाना चाहते हैं तो अनेकांत का आलम्बन लेना होगा। यदि एकांतदृष्टि से कहा जाए-सब निर्विचार बन जाएं तो क्या होगा? पहले तो बनेंगे नहीं और बन जाएंगे तो संसार को खतरा पैदा हो जाएगा, संसार चलेगा भी नहीं।
विचार आवश्यक है, किन्तु वह सम्यक् होना चाहिए। अनावश्यक न हो, प्रयोजनहीन न हो, इस स्थिति का निर्माण अपेक्षित है। ध्यान का प्रयोजन व्यवहार के विपरीत नहीं है। उसका उद्देश्य व्यवहार को परिष्कृत करना है। यदि ध्यान की यात्रा जीवन यात्रा के बिल्कुल उल्टी हो तो ध्यान कभी सबके लिए ग्राह्य नहीं होगा। वह केवल उन लोगों के लिए ग्राह्य हो सकता है, जो हिमालय की गुफा में जाकर बैठ जाएं और अकेले बैठे-बैठे निर्विकल्प ध्यान करें। वह व्यापक बनेगा विचार परिष्कार या विचार संयम के साथ। यदि एक सूत्र पकड़ लें-विचार का संयम करना है तो ध्यान सध जाएगा। ध्यान है श्रुतज्ञान
बहुत कठिन है विचार का संयम । आचार्य रामसेन के सामने प्रश्न आया-ध्यान
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