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तब होता है ध्यान का जन्म जरूरी है आलम्बन
ध्यान का स्वरूप है-ज्ञानान्तर और चिन्तान्तर न हो। प्रश्न होता है कि इस स्थिति का निर्माण कैसे करें? उसका आलम्बन है-प्रेक्षा। शरीर प्रेक्षा एक आलम्बन है, श्वासप्रेक्षा एक आलम्बन है। यह ध्यान नहीं है। ध्यान है मन की एकाग्रता, मन का एक चिन्ता में रहना अथवा चिन्ता से मुक्त होकर स्व-संवेदन-अपना अनुभव करना। ये सब आलम्बन हैं। हम आलम्बनों का अभ्यास इसलिए कर रहे हैं कि हमारी ध्यान की स्थिति पुष्ट बन जाए। निरालम्ब आकाश में वायुयान के लिए चलना संभव है, एक पक्षी के लिए भी उड़ना संभव है। यदि आदमी उड़ान शुरू करे तो क्या होगा? वह छत पर जाकर हाथ फैला दे और निरालम्ब आकाश में छलांग लगा दे तो क्या होगा? वह आकाश में नहीं पहुंचेगा, धरती पर आ जाएगा।
निरालम्ब चलना हर किसी के लिए संभव नहीं है, निरालम्ब में रहना हर किसी के लिए संभव नहीं है। पृथ्वी निरालम्ब है पर गुरुत्वाकर्षण से बंधी हुई है। सौरमण्डल निरालम्ब है पर गुरुत्वाकर्षण से बंधा हुआ है। आदमी अपने पैरों से धरती पर चलता है, निरालम्ब नहीं चलता। निरालंब होना बहुत कठिन है, इसलिए हम आलम्बनों का प्रयोग करते हैं। प्रेक्षाध्यान का प्रशिक्षण आलम्बनों का प्रशिक्षण है। श्वास को देखो, श्वास का आलंबन लो। शरीर को देखो, शरीर का आलम्बन लो। चैतन्य केन्द्रों को देखो, शरीर में होने वाले प्रकम्पनों का आलम्बन लो। लेश्याध्यान करो, रंगों का आलम्बन लो। ये सब आलम्बन हैं। आलम्बन का अभ्यास जैसे-जैसे पुष्ट होता चला जाएगा, निरालम्ब की स्थिति घटित होती चली जाएगी। उस स्थिति में केवल चेतना, शुद्ध चेतना और निश्चय नय का ध्यान होता है। केवल द्रव्यार्थिक का ध्यान होता है, पर्यायार्थिक समाप्त हो जाता है। ध्यान इतना शुद्ध चेतना पर टिक गया कि आलम्बन अवशेष नहीं रहा। यह निर्विकल्प, निर्विचार या निरालम्ब का ध्यान तब संभव बनता है जब आलम्बन पुष्ट होते चले जाएं, एकाग्रता सधती चली जाए। एकाग्रता कैसे सधे?
प्रश्न है-एकाग्रता कैसे सधे? एकाग्रता की सिद्धि का उपाय क्या है? चंचलता कैसे कम हो सकती है? एक चिन्तन पर हम लम्बे समय तक कैसे टिक सकते हैं? इस प्रश्न को समाहित करते हुए कहा गया
इष्टे ध्येये स्थिरा बुद्धिः, या स्यात् संतानवर्तिनी।
ज्ञानांतराऽपरामृष्टा, सा ध्याति ध्यानमीरिता।। इष्ट ध्येय का चुनाव करो। ध्येय इष्ट है, वांछनीय है, प्रिय है तो मन
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