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तब होता है ध्यान का जन्म है, बिना दरवाजा खोले कोई जा सकता है। ऐसी ही स्थिति आज बन गई है।
एक बैंक का कर्मचारी समझदार कम था। बैंक मैनेजर ने सांझ के समय बैंक का ताला लगा दिया और बैंक को आगे से सील कर दिया। उसने कर्मचारी से कहा-पूरी जागरूकता के साथ ध्यान रखना। मैनेजर चला गया। सुबह आया, देखा-पीछे से भींत टूटी हुई है। उसने देखते ही कर्मचारी से कहा-'यह क्या हुआ? कोई भीतर घुसा?' कर्मचारी बोला-'मुझे मालूम नहीं।'
'अरे ! तुम यहां थे। भीतर से सारा माल चला गया और तुम्हें पता नहीं चला।
मेरी जिम्मेवारी सील की रक्षा करने की थी, न कि माल की रक्षा करने की। सील कहीं टूटी हो तो मुझे बता दें। सील वैसी की वैसी ही है। माल चला गया तो उसका मैं क्या करूं?'
ऐसा लगता है-धर्म का क्षेत्र भी कुछ ऐसा ही बन गया है। वहां चपड़ी-सील की रक्षा बराबर की जा रही है किन्तु माल चले जाने की जिम्मेवारी से बचने का प्रयत्न चल रहा है। ध्यान करने वाले व्यक्ति में यह स्थिति नहीं बननी चाहिए। उसमें संवदेनशीलता और करुणा का विकास होना चाहिए। कसें, खरे उतरें
ध्यान की ये सात कसौटियां हैं। इनकी परीक्षा किसी सुनार के पास जाकर न कराएं, स्वयं करें, यह आवश्यक है। आप सोचें-ध्यान का परिणाम क्या आ रहा है? परिवर्तन कितना आ रहा है? मैं कितना बदल रहा हूं? भीतर की बात जब तक व्यवहार में नहीं आएगी, तब तक क्या होगा? आप ध्यान करते हैं या नहीं करते, इसका पता सब व्यक्तियों को नहीं चलता। दूसरे व्यक्ति को तो केवल इस बात का पता चलता है कि आप कैसा व्यवहार करते हैं? ध्यान करने वाले बहुत सावधान रहें, इन कसौटियों से स्वयं को कसे, इन पर खरे उतरें। यदि ऐसा होगा तो ध्यान और ध्याता-दोनों कृतार्थ हो जाएंगे।
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