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तब होता है ध्यान का जन्म चित्तशद्धि की समस्या। उसकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं जा रहा है। जब समस्या समाहित नहीं होगी तब आदमी मुड़कर देखेगा और तब वह यही कहेगा-इस दृष्टि से समस्या को देखना ही याद नहीं रहा। भूल गया है आदमी
प्राचीन घटना है। एक आदमी की स्मरण-शक्ति कमजोर हो गई। वैद्य के पास गया, बोला-वैद्यजी महाराज ! कोई दवा दो, जिससे स्मरण-शक्ति ठीक हो जाए।' वैद्य ने दवा दे दी। कुछ दिन बाद वैद्यजी मिले, पूछा-'बताओ ! अब तुम्हारी स्मरण-शक्ति कैसी है?' उस व्यक्ति ने कहा- कोई ज्यादा फर्क तो नहीं पड़ा किन्तु थोड़ा-सा फर्क पड़ा है, अब मैं भूल जाता हूं तो मुझे इतना याद आ जाता है कि मैं भूल गया हूं। पर क्या भूल गया हूं, यह याद नहीं आता।'
ऐसा लगता है-आदमी कुछ भूल गया है पर क्या भूल गया है, यह याद नहीं आ रहा है। हम भी कुछ भूल गए हैं। सारी समस्याओं को सुलझाने में लगे हैं, पर मूल बात को भूल गए हैं आश्चर्य है कि उसे पूरा समाज भूल गया है। राजनीति के लोग भी भूल गए हैं। धर्म के लोग कहते हैं-'तुम धर्म-ध्यान करो, क्रियाकाण्ड करो, तुम्हारा परलोक सुधर जाएगा।' वे इस मूल बात को भूल गए कि यह जीवन सुधरे बिना परलोक कैसे सुधरेगा? आचरण की शुद्धि के बिना जीवन कैसे सुधरेगा? नैतिकता के बिना जीवन में पवित्रता कैसे आएगी? शायद इसीलिए भगवान महावीर ने ध्यान को बड़ा महत्त्व दिया था। एक जैन सूत्र है ऋषिभासित। उसमें लिखा है कि ध्यान के बिना धर्म वैसा ही है, जैसे कटा हुआ धड़। शरीर के नीचे का भाग पूरा है पर सिर नहीं है तो क्या होगा? सारे शरीर का संचालन कौन करता है? मस्तिष्क नहीं रहा तो फिर कुछ भी नहीं बचा। ध्यान के बिना धर्म भी ऐसा हो गया है, जैसे शरीर से मस्तिष्क को काट दिया है। ध्यान का मतलब है-अपने भीतर चले जाएं, अपनी आत्मा के पास पहुंच जाएं। हमारी दो ही स्थितियां हैं या तो पदार्थ के पास रहें या चेतना के पास रहें। जैसे-जैसे आदमी अपनी चेतना की सन्निधि में रहता है, उसमें पवित्रता आती है, निर्मलता आती है और उसकी सारी बुराइयां मिटती चली जाती हैं। प्रश्न मानवीय संबंधों की मधुरता का
प्रश्न है-मानवीय संबंध कैसे मधुर बने? ध्यान के बिना मानवीय सम्बन्धों में सुधार की बात सम्भव नहीं बनेगी। कारण स्पष्ट है-ध्यान के बिना चित्त की शुद्धि नहीं होती, चेतना की सन्निधि नहीं मिलती। हम एक सूत्र को पकड़ लें-जितना-जितना चेतना की सन्निधि में रहना है उतना-उतना चित्त की शुद्धि में रहना है। जितना-जितना पदार्थ के जंजाल में रहना है उतना-उतना भ्रांति या मलिनता में रहना है। धर्मस्थान
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