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________________ १३६ तब होता है ध्यान का जन्म एक भाई ने कहा-तनाव बहुत रहता है। मैंने पूछा-कारण क्या है। उसने बताया-व्यापार ठीक नहीं चल रहा है। लाभ नहीं है, अलाभ हो रहा है। तनाव का कारण यही है। जैसे ही अलाभ पैदा हुआ, तनाव पैदा हो जाएगा। आप यह सोचें कि अनुकूलता में तनाव पैदा नहीं होता। उसमें भी तनाव होता है। यदि लाभ बहुत हो गया तो साथ-साथ में तनाव भी बहुत बढ़ जाएगा। वह तनाव इस कारण होगा कि जो लाभ हुआ है, उसे कैसे बचाएं। धन इतना आ गया, बचे कैसे? बहुत खा लिया अब पचे कैसे ? बहुत कमा लिया, उसको कहां रखें, इन्कमटेक्स से कैसे बचें? चोर-डकैतों से कैसे बचें? यह चिन्ता सताती है और तनाव पैदा हो जाता है। तनाव दोनों तरफ से है। लाभ में भी तनाव और अलाभ में भी तनाव । अनुकूलता में भी तनाव और प्रतिकूलता में भी तनाव। दोनों स्थितियों में विवेक करना बड़ा कठिन होता है। जो विवेक करना नहीं जानता, वह दोनों ही स्थितियों में समस्या को निमंत्रण दे देता है। जरूरी है विवेक एक व्यक्ति ने अपने घर में बिल्ली और कुत्ता-दोनों को पाल रखा था। बिल्ली अधिक बोलती थी, दिन-रात म्याऊं-म्याऊं करती थी। मालिक को बड़ा अटपटा लगता, वह सोचता-सारे दिन म्याऊं-म्याऊं करती है, आराम भी नहीं करने देती, नींद में भी बाधा डालती है। जब एक दिन बिल्ली म्याऊं-म्याऊं कर रही थी, मालिक उसे खूब पीटते हुए बोला-क्या सारे दिन म्याऊं-म्याऊं करती है? कुत्ते ने देखा-यह बोलती है इसलिए पीटी गई, अब मैं बोलूंगा ही नहीं। उसने मौन कर लिया। रात को घर में चोर घुस गए। चोरी हो गई। सुबह हुई। मलिक लाठी लेकर कुत्ते पर बरस पड़ा, बोला-तुझे क्यों पाला है? इतनी रोटियां किसलिए खिलाई हैं? इसलिए पाला है कि चोर आए तो भौंक कर सूचित कर दो। तुमने मौन साध रखा है। मालिक ने उसे यह कहते हुए खूब पीटा। बिल्ली की मरम्मत हुई ज्यादा बोलने के कारण और कुत्ते की मरम्मत हुई न बोलने के कारण। प्रश्न खड़ा हो जाता है कि मौन अच्छा है या बोलना अच्छा? क्या करें? हमें यह विवेक करना है-कहीं-कहीं मौन करना भी अच्छा है और कहीं-कहीं बोलना भी अच्छा है। बोलना भी जरूरी है और मौन भी जरूरी है । जो आदमी विवेक नहीं कर पाता, अविवेक के साथ चलता है, वह समस्या पैदा कर लेता है। यह विवेक करना होता है कि लाभ अच्छा है या अलाभ। हम यह नहीं कह सकते कि लाभ अच्छा ही है और यह भी नहीं कह सकते कि अलाभ अच्छा नहीं ही है। कहीं-कहीं ऐसा होता है कि अलाभ आदमी को आगे बढ़ा देता है। कुछ मिला नहीं, इस चिंतन से मन में एक भावना जागती है और व्यक्ति बहुत आगे बढ़ जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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