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________________ १३२ तब होता है ध्यान का जन्म है, लाठी के सहारे खड़ा हो जाता है या उसका सहारा ले लेता है। जहां जरूरत नहीं होती है, वहां लाठी को हाथ में रख लेता है। इसी प्रकार जहां आवश्यकता हो वहां औषध का प्रयोग किया जाए अन्यथा ध्यान का प्रयोग हो । ध्यान के द्वारा भीतरी स्रोतों को खोल दिया जाए तो आनन्द के झरने हैं, वे बहने लग जाएंगे। यह अनुभव की बात है । अगर यह बौद्धिक बात होती तो मैं उसे बता देता, किन्तु अनुभव की बात को बताया नहीं जा सकता। कहा जाता है- गूंगे का गुड़ । आदमी गूंगा है। उसने गुड़ खाया | पूछा गया - गुड़ कैसा लगा? क्या वह बता पाएगा? बोलने वाला भी क्या बताएगा? इतना ही कि मीठा लगा । पूछा जाए - स्वाद कैसा है ? तो क्या बताए, यह बताने की नहीं, अनुभव की बात है । जिन लोगों ने ध्यान का अनुभव किया है, उन लोगों को पता है- ध्यान करने में कितना सुख और कितना आनन्द प्रकट होता है । भीतर है सुख का स्रोत प्रेक्षाध्यान के एक शिविर में हैदराबाद के युवक ने भाग लिया। वह पहली बार ध्यानन - शिविर में आया था । भृकुटि के मध्य दर्शनकेन्द्र पर बाल सूर्य का ध्यान । वह प्रयोग में बैठा । ध्यान का समय था एक घण्टा । एक घण्टा पूरा हो गया । सब लोग उठ गए पर वह नहीं उठा। मैंने कहा- कोई बात नहीं है, अभी चल रहा है, चलने दो । दो घण्टा पूरे हो गए तो भी नहीं उठा । तीन घण्टे होने लगे । घर वाले घबरा गए, कहने लगे-अब तक नहीं उठा। अब क्या होगा? मैं उसके पास गया, उसके कान में कुछ सुनाया तब उसने आंखें खोली । मैंने कहा- तीन घण्टा बिल्कुल मूर्ति - प्रतिमा की तरह बैठे रहे । तुमने ध्यान क्यों नहीं खोला ? उसने कहा - महाराज ! इतने सुखद स्पन्दन, कम्पन, वाइब्रेशन आ रहे थे कि उन्हें तोड़ना मेरे वश की बात नहीं रही । प्रश्न है - इतना सुख कहां से आया? ऐसा सुख, जिसे छोड़ने और तोड़ने का मन ही न हो, कहां से फूटा ? जब भीतर में सुख के प्रकम्पन पैदा होते हैं. तब आदमी को पता चलता है कि हमारे भीतर कितना सुख है । | प्रेक्षाध्यान का एक शिविर था लाडनूं में । बम्बई से काफी लोग आए हुए थे शिविर पूरा हो गया । बम्बई के एक दम्पति जब जाने लगे तब भाई एक बच्चे की तरह सिसक-सिसक कर रोने लगा। मैंने सोचा-क्या हो गया? क्या किसी ने अपमान कर दिया? तिरस्कार कर दिया? कुछ कह दिया या कुछ खो गया ? हुआ क्या? मैंने कहा- बात क्या है? आप बात तो बताएं। भाई बोला-बात कुछ नहीं है । अब मैं जा रहा हूं इसलिए रोना आ रहा है। मैंने पूछा- अरे ! क्यों? भाई ने गद्गद स्वर में कहा- क्या बताऊं ? हम लोग बम्बई जा रहे हैं। मोहमयी नगरी । सम्पन्न घर | कुछ कमी नहीं है । सुख के साधन-सुविधा, सब कुछ प्राप्त है । साठ बरस की मेरी उम्र हो गई। मैंने दुनिया भर के सारे सुख भोगे हैं, पर इन दस दिनों में जितना आनंद आया है, उतना जीवन में कभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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