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बाहर उजला भीतर मैला यह बाह्य जगत् की बात हो जाएगी। मन बाह्य जगत् के साथ खेलता रहता है। कोरा मन का परिष्कार या मन की चंचलता को कम कर देना प्रेक्षाध्यान का लक्ष्य नहीं है। प्रेक्षाध्यान का लक्ष्य है आत्मा की निर्मलता। आत्मा पर जो मैल जमा हुआ है, जो संस्कार जमे हुए हैं, उनको उखाड़ना और चेतना को निर्मल बनाना। मन जड़ है, यंत्र है, हमारे काम करने का साधन है। वह तो अपने आप ठीक हो जाएगा। सबसे बड़ा लक्ष्य है भावशुद्धि। भाव चेतना का एक हिस्सा है। चित्त चेतना का अंग है। लेश्या चेतना की एक रश्मि है।
भावशूद्धि, लेश्याशुद्धि, चित्तशुद्धि-ये सब आत्मा से जुड़े हुए हैं। इन सबको एक शब्द में कहा गया-कषायमुक्ति, कषाय से मुक्त होना। आदमी जब-जब क्रोध करता है, तब-तब मलिन बनता है, पुरानी मलिनता को पोषण दे देता है और नई मलिनता की एक चादर ओढ़ लेता है। जब-जब आदमी अहंकार करता है, उस आवरण को और प्रगाढ़ बना देता है। जब आदमी माया करता है, तब दूसरे को ही नहीं ठगता, अपने आपको ठगने में एक नई बात जोड़ देता है। जब-जब आदमी लोभ के आवेग में जाता है तब केवल पदार्थ का संग्रह ही नहीं करता, उसके साथ-साथ सघन कर्म परमाणुओं का संग्रह और संचय कर लेता है। पदार्थ का संग्रह तो मरते समय छूट जाता है पर वह कर्म परमाणुओं का संचय तो पता नहीं, कितने जन्मों तक बराबर साथ रहता है और अपना परिणाम भुगताता है। यह कषाय का परिवार इतना ही नहीं है। घृणा, भय, संयम के प्रति अरुचि, असंयम के प्रति आकर्षण-यह सारा कषाय से ही पैदा होता है। सारी समस्याओं का मूल है कषाय । वह आदमी को रंगीन बना देता है और ऐसा रंग चढ़ाता है कि दूसरा रंग कभी दिखाई नहीं देता। उस कषाय से मुक्ति पाना अन्तर्जगत् का परिष्कार है। ऐसी शिक्षा होनी चाहिए, जिससे कि आदमी कषाय से मुक्ति पा सके। कहां है प्रशिक्षण?
एक व्यक्ति विद्यालय में पढ़ा, महाविद्यालय में पढ़ा। अनेक डिग्रियां प्राप्त कर ली। पी.एच.डी. की, डाक्टर बन गया, किन्तु परिवार के साथ सामंजस्य नहीं कर सका पत्नी के साथ भी सामंजस्य नहीं बिठा सका। सबके साथ लड़ता-झगड़ता रहता है। क्या पढ़ाई से मस्तिष्क का परिष्कार हुआ? खूब पढ़ाई कर ली, पर नशे में चूर रहता है। हमने ऐसे विद्वानों को देखा है, जो शराब भी पीते हैं और ड्रग्स का भी उपयोग करते हैं। क्या मस्तिष्क का प्रशिक्षण हो गया? ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने पढ़ाई तो बहुत कर ली पर थोड़ी-सी बात पर आत्महत्या करने को तैयार रहते हैं। थोड़ी-सी कुछ घटना घटती है और एक पढ़ा-लिखा आदमी ऐसा करता है तब ऐसा लगता है-जीवन में जो समग्रता आनी चहिए, मस्तिष्क का जो समग्र विकास होना चाहिए, वह कुछ भी नहीं हुआ।
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