________________
१३
यह दुःख कहां से आ रहा है तो वह अशुभ की सृष्टि क्यों करेगा? जो प्रश्न ईश्वर के संदर्भ में उपस्थित होता है वही प्रश्न आत्मा के संदर्भ में प्रस्तुत हो जाता है । हम मुड़कर देखें । आत्मा शुद्ध है, यह हमारी कल्पना है । वस्तुतः वह शुद्ध नहीं है । जब तक आत्मा शरीर के साथ जुड़ी हुई है तब तक उसे शुद्ध कैसे माना जाए ? जब तक आत्मा राग-द्वेष की प्रवृत्ति के साथ जुड़ी हुई है तब तक वह शुद्ध कैसे हो सकती है ? शुद्ध आत्मा की बात मुक्त अवस्था में की जा सकती है । जहां पुद्गल से कुछ भी लेना-देना नहीं है, वहां शुद्ध आत्मा का प्रश्न आता है। इस शरीर में राग-द्वेष में फसी हुई आत्मा शुद्ध है, यह नहीं कहा जा सकता। तीन भूमिकाएं
हमारी तीन भूमिकाएं हैं -शुभ को भूमिका, अशुभ की भूमिका और संवर की भूमिका । जहां शुभ और अशुभ दोनों नहीं हैं, पुण्य और पाप दोनों क्षीण हो जाते हैं, वहां न शुभ होता है, न अशुभ होता है। जब तक हमारा जीव अशुद्ध है तब तक वह शुभ और अशुभ-दोनों को पैदा करता रहेगा। व्यक्ति स्वयं अशुभ को पैदा कर रहा है। इसमें बाहर का कोई लेना-देना नहीं है । अशुभ को न ईश्वर पैदा कर रहा है, न शैतान पैदा कर रहा है, न कोई तीसरी शक्ति उसे पैदा कर रही है । स्वयं का अशुद्ध जीव ही उसे पैदा कर रहा है। दुःख का स्रोत
दुःख का स्रोत है-आस्रव । हम यह स्वीकार करेंहमारे भीतर ज्ञान है, दर्शन और आनंद है पर उसके साथ ही अज्ञान है, अदर्शन है और आनंद भी बाधित है इसलिए अशुद्ध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org