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नवतत्त्व : आधुनिक संदर्भ अमूर्त-मूर्त से कभी प्रभावित नहीं हो सकता । प्रश्न है- यह समस्या क्यों पैदा हुई ? जब चेतनासत्ता-आत्मा को सर्वथा अमूर्त मान लिया गया, पुद्गल को मूर्त मान लिया गया, दोनों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की गई, तब यह समस्या पैदा हुई । जैन दर्शन में जीव को कभी सर्वथा अमूर्त नहीं माना गया, पर एक अवस्था आती है, जीव अमूर्त बन जाता है। वह सर्वथा अमूर्त नहीं है । प्रत्येक देहधारी प्राणी एक अवस्था से मूर्त है, शरीर से जुड़ा हुआ है। अनादिकालीन संबंध
प्रश्न हुआ-जीव शरीर के साथ कब से जुड़ा हुआ है ? उत्तर दिया गया -- जब से जीव है तब से वह शरीर के साथ है । ऐसा कोई काल नहीं रहा, जिसमें जीव रहा किन्तु शरीर नहीं रहा । जीव कब से शरीरधारी है, उसका कोई पता नहीं है। कहा जा सकता है-जीव और शरीर का यह संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है । यदि पुद्गल के साथ आत्मा का संबंध माना जाए तो मुक्त आत्मा के साथ भी पुद्गल का संबंध मानना होगा । जो आत्मा शरीर से मुक्त है, उसके साथ भी संबंध मान्य करना होगा किन्तु उनके बीच संबंध नहीं है। पुद्गल पुद्गल है, आत्मा आत्मा है। पूरे लोक में जीव और पुद्गल व्याप्त हैं, किन्तु दोनों में कोई संबंध नहीं है । न पुद्गल से मुक्त-आत्मा प्रभावित होती है न मुक्त-आत्मा से पुद्गल । हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे- जीव और पुद्गल में संबंध स्थापित नहीं किया गया किन्तु वह प्राकृतिक रूप से, नैसर्गिक रूप से चला आ रहा है । जो प्राकृतिक होता है, उसमें तर्क नहीं होता।
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