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________________ प्रकाशिका टीका त.३ वक्षस्कारः सू० ३४ षट्स्खण्डं पालयतो भरतस्य प्रवृत्तिनिरूपणम् ९६९ मेघान्निर्गच्छन् सन् प्रियदर्शनो भवति तथाऽयमपि भरतः सुधाधवलितमज्जनगुहानिर्गच्छन् प्रियदर्शन इति पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य निर्गत्य जेणेव भादंसघरे जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ ' यत्रैव आदर्शगृहं दर्पणगृहम् यत्रैव च सिंहासनं तत्रैव उपागच्छति · उवागच्छित्ता' उपागम्य 'सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुरेणिसीयइ ' सिंहसनवरगतः श्रेष्ठसिंहासने उपविश्येत्यर्थः पौरस्त्याभिमुखः पूर्वाभिमुखो भूत्वा निषीदति उपविशति स भरतः णिसीइत्ता' निषध उपविश्य 'आदसघरंसि अत्ताणं पेहमाणे पेहमाणे चिट्टइ' आदर्शगृहे आत्मानं पश्यन् पश्यन् तत्र प्रतिविम्बितं सर्वा स्वरूपं स्वशरीरं प्रेक्षमाणः प्रेक्षमाणः तिष्ठति आस्ते स भरतः । 'तएणं इत्यादि । 'तण प्रियदर्शनो भवति, तथाऽयमपि भरतः सुधाधवलितमज्जनगृहान्निर्गग्छत् प्रियदर्शनः" इस कथन का संग्रह किया गया है. इसका अर्थ सुगम है. (पडिणिक्खमित्ता जेणेव आदंसघरे जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ) बाहर निकल कर फिर वे जहां पर आदर्श गृह (अरिसा भवन) था और उसमें भी जहां पर सिंहासन था. वहां पर आये. (उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे णिसीयइ) बहां आकर वे पूर्वदिशा को ओर मुँह कर के सिंहासन पर बैठ गये (णिसोहचा आदंसघरंसि अत्ताणं देहमाणे चिर) वहां बैठे २ वे अपने पडे हुए-प्रतिबिम्ब को बार २ निहार ने लगे अपने प्रतिबिम्ब को निहारते २ उनकी दृष्टि अपनी अङ्गुली से गिरि हुई मुद्रिका-अरठीपर -पड़ गई. उसे देखकर उन्होंने अपनी-अंगुली को दिन में ज्योत्स्ना से फीकी पड़ी हुइ शशिकला के समान देखा-देखकर उन्होंने वि वार किया कि ओह-यह अञ्जली अगुठी से विरहित होकर शोभा विहीन होगई है. इस प्रकार विचार करते हुए उन भरत ने अपने शरीर के-और २ अवयवों को आभरण विहीन कर दिया तो ये सब-अवयव भो शोभा से विहीन हुए उन्हें दिखने लगे. तब, उन्होंने समस्त मङ्गों से आभूषणों को उतारना प्रारम्भ कर दिया. (तएणं प्रियदर्शनी भवति तथाऽयमपि भरतः सुधाधवलितमज्जनगृहान्निर्गतः प्रियदर्शनः' मा ४थनना सब ३२वामा मावस छे. मानो अर्थ सुगम छे, (पडिणिक्खमित्ता जेणेव भादंसघरे जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ) पहारीजी छान्यो (मन) तुमने तेमाप या सिंहासन तु त्या मा०या. (उवागच्छित्ता सीहासणघरगए पुरस्थाभिमुहे णिसोयइ) त्यांना पूर्व हिश त२३ भुमशन सिंहासन ०५२ समासीन 45 गया. (णिसीइत्ता आदसघरंसि अत्ताणं देहमाणे चिट्ठइ) या मेसीन તેઓ પોતાનાં પ્રતિબિંબ ને વારે ઘડીએ જોવા લાગ્યા. પિતાના પ્રતિબિંબને જોતાંજોતાં તેમની દૃષ્ટિ પિોતાની આંગળીથી સરી પડેલી મુદ્રિકાં–અંગુઠી–ઉપર પડી ગઈ. તેને જોઈને તેમણે પિતાની આંગલીને દિવસમાં જ્યોન્ના રહિત શશિકલાની જેમ કાંતિહીન જોઈ તેરીતે જોઈને તેમણે વિચાર કર્યો કે અરે ! એ આંગળી અંગુઠીથી વિરહિત થઈને શોભા વિહીન થઈ ગઈ છે. આ પ્રમાણે વિચાર કરતાં કરતાં તે ભરતે પિતાના શરીરના બીજા અંગોને પણ આભાર વિહીન કરી દીધાં. આમ સર્વ અંગો પણ શેભા વિહીન થઈ ગયાં ત્યાર माह तभपाताना समस्त भागो उपरथी आभूषणो उतinelai (तपण तस्स भरास्स १२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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