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________________ प्रकाशिका टीका तृ. ३ वक्षस्कारः सु० ३१ भरतराज्ञः राज्याभिषेकविषयक निरूपणम् ९५३ नाटक सहस्त्रैः सार्द्धं संपरिवृत्तो भवनवरावतंसकं स्वराजभवनं प्रविशति तत्र कीदृशो राजा कीदृशं च राजभवनं तत्राह - ' जाव कुबेरोव्व देवराया कैलासं सिहरि सिंगभूअंति' यावत् सर्वतोभावेन कुबेरो देवराज इव-यथा कुबेरो देवराजः तथा अयमपि लोकपालो भरतो देवराजः यथा च कैलासं स्फटिकाचलं किं लक्षणं भवनवरावतंसकं शिखरिशृङ्ग पर्वतशिखरं तद्भूतं तत्सदृशमुच्चत्वेन भरतस्य राजभवनमित्यर्थः ' तर णं से भरहे राया मज्जणघरं अणुपविसई' ततः खलु स भरतो राजा मज्जनगृहं स्नानगृहम् अनुप्रविशति 'अणुपविसित्ता जाव' अनुप्रविश्य यावत् अत्र यावत्पदात् कृतस्नानः सन् ततो निःसृत्य भोजन मण्डपमुपागच्छति उपागत्य ' भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्टम - भत्तं पारेइ' भोजनमण्डपे भोजनशालायां सुखासनवरगतः सन् अष्टमभक्तं पारयति अहोरात्रत्रयात्मकं दिनत्रयमुपवासं कृत्वा ततः परम् अष्टमभक्तेन पारणां करोति स भरत इत्यर्थः 'पारेता' पारयित्वा पारणां कृत्वा 'भोयणमंडवाओ पडिणिक्खमइ' भोजनमण्डपात् भोजनशालातः प्रतिनिष्क्रामति निर्गच्छति 'पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य निर्गत्य ' उपि पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं जाव भुंजमाणे विहरइ' उपरि प्रासादवरगतः श्रेष्ठप्रासादमवस्थितः सन् स भरतो राजा स्फुटद्भिः मृदङ्गमस्तकैः ३२ पात्रबद्ध ३२ हजार नाटकों से युक्त हुए भवनवरावतंसक स्वराजभवन में प्रविष्ट हुए (जाव कुवेरोव देवराया कैलासं सिहरिसिंगभूअंति") जिस प्रकार कुबेर कैलास पर्वत के भीतर प्रविष्ट होता है उपी प्रकार वे भरत राजा कैलास के शिखर जैसे ऊंचे अपने राजभवन में प्रविष्ट हुए (तरणं से भरहे राया मज्जणघरं अणुपविसइ) राजभवन में प्रवेश करने के बाद वे भरत महाराजा स्नानगृह में गये और वहां अच्छी तरह से स्नान किया फिर वे वहां से निकले और निकलकर (भोयणमंडवं से सुहासणवरगए अट्टमभत्तं पारेs) भोजन मन्डप में गये वहां जाकर उन्होंने सुखासन से बैठ कर अष्टम भक्त तपस्या की पारणा की (पारेता भोयणमण्डवाओ पडिणिक्खमइ) पारणा करके फिर वे वहां से चले आये और आकर ( पडिणिक्खमित्ता उपि पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमस्थएि जाव भुंजमाणे विहरइ) अपने भवनावतंसक स्वराजभवन में आये और वहां आकरके के युक्त थयेला लवनवशक्ती स्वराज भवनमा प्रविष्ट थया. (जाव कुबेरोव्व देवराया केलास सिहरिसिंगभूअंति) प्रेम उमेर सास पर्वतां प्रविष्ट थाय छे, तेमन ते भरत राज्य उपासना शिमेर वा अन्य पोताना रान भवनमा प्रविष्ट थया. (तपणं से भरहे राया मज्जणघरं अणुपविस) भवनमा प्रष्ट थया ખાદ્ય તે ભરત રાજા સ્નાન ગૃહમાં ગયા त्यांते सारी रीने स्नान यु पछी तेथे त्यांथी नउज्यां भने नीजीने (भोयण मंडवाओ सुद्दाणवरगए अट्टमभत्तं पारेइ) लोन मंडपां गया त्यांने ते सुष्णाસનમાં બેસીને અષ્ટમ लत तपस्याना पारणार्या (पारेता भोयणमंडवाओ पडिणिक्खमह) पारा पुरीने पछी तेथे त्यांथी आव्या मने मावीने (पडिणिक्खमित्ता उपि पासायवर गए कुट्टमाणेहिं मुहं गमत्थपहिं जाव भुंजमाणे विहरह) पोताना लत्रनावत सड़ स्वरानभवन १२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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