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________________ प्रकाशिका टोका तृ०३ वक्षस्कारःसू० ३० भरतराज्ञः राज्याभिषेकविषयकनिरूपणम टोका- 'तए णं तस्स' इत्यादि 'तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ रज्जधुरं चिंतेमाणस्स इमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था' ततः खलु तदनन्तरं किल तस्य षट्खण्डाधिपतेर्भरतस्य राज्ञः अन्यदा कदाचिद् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्काले राज्यधुरं राज्यभारं चिन्तयतः अयमेतद्रूपो यावत्समुदपद्यत समुत्पन्नः अत्र यावत्पदात् 'अज्झथिए चिंतिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे' एतेषां सङ्ग्रहः तत्र अयमेतद्रूपः स राज्यभारविषयकविचारः 'अज्झथिए' आध्यात्मिकः प्रथमम् आत्मनि जातोऽङ्कुर इव तदनु'चिंतिए' चिन्तितः पुनः पुनः स्मरणरूपः सएव विचारो द्विपत्रित इव समुत्पन्नः २, तदनु 'कप्पिए' कल्पितः व्यवस्थायुक्तः इत्थंरूपेण राज्यभारव्यवस्था करिष्यामीति कार्याकारण स एव परिणतो विचारः पल्लवित इव जातः३, तदनु 'पत्थिए' प्रार्थितः स एव विचारः भार को चलाने के सम्बन्ध में विचारमग्न थे तब उन्हें इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ यहां यावत्पद से संकल्प के “अज्झथिए चिंतिए, कप्पिए, पत्थिए मणोगए संकप्पे"इन विशेषण पदों गृहीत हुए है। इन पदों की व्याख्या इस प्रकार से है-यह संकल्प सर्व प्रथम अङ्कर के जैसा मात्मा में उत्पन्न हुआ इस कारण इसे आध्यात्मिक कहा गया है. फिर बार २ भरत चक्री ने इसे याद किया इसलिये द्विपत्रित अर्कुर की तरह इसे चिन्तित विशेषण से विशिष्ट किया गया है फिर यही विचार व्यवस्थायुक्त बनगया-मैं इसी प्रकार से राज्य मारकी व्यवस्था करूंगा" इस रूप से वह कार्य के आकार में परिणत हो गया अतः वह कल्पित पद से कहा गया है. इष्ट रूप से यह विचार स्वीकृत हो गया इसलिये इसे, 'पत्थिए' पद से अभिहित किया गया है. तथा-इसे अभी तक “तपणं तस्स भरहस्स रणो अण्णया कयाइ" इत्यादि सूत्र-३०॥ साथ-(तएणं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ रज्जधुरं चिंतेमाणस्स इमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था) स४ [६वसना पात छ त्या भावना . ચલાવવાના સંબંધમાં વિચારમગ્ન હતા. ત્યારે તેમના અન્ત:કરણમાં એ જાતને स३६५ मव्यो मडीयावत् पहथी सं४६पना "अज्झथिए चितिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे' से विशेष पहोना संड थयोछे. समनी व्याच्या प्रभार છે. એ સંક૯૫ સર્વ પ્રથમ અંકુરની જેમ આત્મામાં ઉદ્ભવ્યો એથી આને આધ્યાત્મિક કહેવામાં આવેલ છે. પછી ભરત ચક્રીએ આને વારંવાર યાદ કર્યો એથી આ દ્વિપત્રિત અંકુરની જેમ આને ચિતિત વિશેષણથી વિશિષ્ટ કહેવામાં આવેલ છે. પછી એજ વિચાર વ્યવસ્થાયુક્ત બની ગયો. “હું આ પ્રમાણેજ રાજ્યભારની વ્યવસ્થા કરીશ” એ રૂપમાં એ સંક૯૫ કાર્ય રૂપમાં પરિણત થઈ ગયે એથી એ કલ્પિત પદથી સ્પષ્ટ કરવામાં भाव छ. ४ट ३५थी से विया२ स्वीकृत 25 गया. मेथी मान पत्थिर' पहथी भनिહિત કરવામાં આવેલ છે. તથા આ સંબંધમાં હજી સુધી ચકવતી એ કેઈનેય કહ્યુનથી ११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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