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________________ ९०४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मंजुमंजुणा' मञ्जुमजुना अतिसरलेन 'घोसेणं' घोषेण शब्देन “अपडिबुज्झमाणे २' अप्रतिबुध्यन्र अन्यद्वस्तु अजानन् अजानन् तत्रैव शब्दे लीनत्वात् 'जेणेव सए गिहे जेणेव स भवणवर्डिसयदुवारे तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव स्वकं गृहम् पैत्र्यं राजभवनं यत्रैव स्वकं भवनावतंसकद्वारं जगद्वर्ति वासगृहशेखरी भूतराज योग्यवासगृहप्रतिद्वारमित्यर्थः तत्रैव उपागच्छति स भरतः 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'आभिसेक्कं हत्थिरयणं ठवे ' आभिषेक्यम् हस्तिरत्नम् प्रमुखपट्टहस्तिनं स्थापयति' ठवित्ता' स्थापययित्वा' आभिसेक्काओ हथिया पच्चोरूहइ' आभिषेक्यात् पट्टहस्तिनः हस्तिरत्नात् प्रत्यवरोहति उत्तरति 'पच्चोरुहित्ता प्रत्यवरूह्य ऊत्तीर्य 'सोलसदेव सहस्से सक्कारेइ सम्मानेइ' षोडशदेवसहस्राणि सत्कारयति अंजलिप्रभृतिभिः सम्मानयति अनुगमन दिना 'सक्कारिता संमानित्ता' सत्कार्य सम्मान्य 'बत्तीसं रायसहस्से सक्कारेइ सम्माणे ' द्वात्रिशतं राजसहस्त्राणि सत्कारयति सम्मानयति 'सक्कारिता सम्माणित्ता' सत्कार्य सम्मान्य' सेणावइरयणं सक्कारेइ सम्माणेइ 'सेनापतिरत्नं बजते हुए तन्त्री तल त्रुटित वाद्य विशेष- इनकी तुमुल गडगडाहट के साथ २ (मधुरेणं मणहरेणं मंजु मंजुणा घोसेणं मपडिबुज्झमाणे अप्पडिबुज्झमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव सए भवणवर्डिसयदुवारे ! तेणेव उवागच्छइ) तथा होते हुए मधुर मनोहर, अत्यंत कर्णप्रिय घोष में तल्लीन होने के कारण अन्य किसी दूसरी वस्तु की ओर ध्यान नहीं देते हुए वे भरत नरेश जहां पर पैतृक राजभवन था और उस में भी जहां पर जगद्वर्ती वासगृहों में मुकुट रूप अपना निवासस्थान था उसके द्वार पर आये (उवागच्छित्ता आभिसेक्कं हत्थिरयणं ठवेइ) वहां व्याकर उन्होने अपने आभिषेक्य हस्ति रत्न को खड़ा कर दिया (ठवित्ता आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चो रूइइ) आभिषेक्य हस्तिरत्न को खडा करके फिर वे उससे नीचे उतरे (पच्चोरुहित्ता सोलसदेवसहरुले सक्कारेइ सम्माणेइ ) नीचे उकर उन्हों ने सोलह हजार देवों का अनुगमनादि द्वारा सत्कार किया और सन्मान किया (सक्कारिता सम्माणित्ता वत्तो रायसहस्से सक्कारेइ, सम्माणेइ) देवों का सत्कार और स न्मान करके फिर उन्हों ने ३२ हजार राजाओं का सत्कार एवं सन्मान किया (सक्कारिता सम्माणित्ता सेणावइरयणं सक्कारेह संमाणेइ) सत्कार सन्मान करके फिर अपने सेनापतिरत्न का त्रुटित - वाद्यविशेष - सर्वना तुमुख गडगडाहट युक्त शहू साथै (मधुरेणं मणहरेणं मंजु मंजुणा घोसेणं अपडिबुज्झमाणे अपडिबुज्झमाणे जेणेव सप गिहे जेणेव सप भवणवडिसयदुवारे ! तेणेव उवागच्छ) तेन मधुर, मनोहर, अत्यंत प्रिय घोषमां तस्सीन होवाथी मील કાઈપણ વસ્તુ તરફ જેનું ધ્યાન નથી એવા તે ભરત નરેશ જ્યાં પૈતૃક રાજભવન હતું અને તેમાં પણ જ્યાં જગદ્વતી વાસ ગૃઢામાં મુકુટરૂપ પેાતાનું નિવાસસ્થાન હતુ, તેના દ્વારસામે चहान्यां (उवागच्छत्ता अभिसेक्कं हस्थिरयणं ठवेइ) त्यां भावीने तेथे पोताना भाभिवेश्य इस्तिशन ने उलाराजीने पछी तेथे नीये . (पच्चारुहिता सोलसदेव सहस्से सकाइ सम्माणे) नीचे उतरीने तेथे सोजर देवानी अनुगमनाहि वडे सत्तार या ाने सन्मान म्यु (सक्कारित्ता सम्माणित्ता बत्तीसं रायसहस्से सक्कारेद्द सम्माणे) देवाना સત્કાર અને સન્માન કરીને પછી તેમણે ૩૨ હજાર રાજાઓ ના સત્કાર તેમજ સન્માન Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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